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लक्ष्मण को जीतकर सम्मान सहित सीता को उन्हें लौटाने की बात भी सोचता है। रावण की यह विचारधारा उसके चरित्र को उदात्त भूमि पर प्रतिष्ठित करती है। अन्य पात्रों के चरित्र भी विकसित हैं। यथा-राजा दशरथ पुत्र के वियोग में कायरों की तरह प्राणों का त्याग नहीं करते हैं, अपितु निर्भय वीर की भाँति श्रमण दीक्षा अंगीकार कर आत्मकल्याण के पथ पर अग्रसर होते हैं । कैकेयी के चरित्र में भी मातृ-वत्सलता का गुण उजागर हुआ है। वह वात्सल्य भाव से प्रेरित होकर ही भरत के लिए राज्य चाहती है। इस प्रकार प्रायः सभी चरित अपनी-अपनी स्वाभाविक विशेषताओं के साथ प्रस्तुत हुए हैं। काव्यात्मक सौन्दर्य की दृष्टि से यह चरितकाव्य अद्वितीय है। समुद्र, वन, पर्वत, नदी, सूर्यास्त, नख-शिख, आदि के वर्णन महाकाव्यों की भाँति सजीव हैं। रस, भाव एवं अलंकारों की कवि ने स्वाभाविक योजना प्रस्तुत की है। इस ग्रन्थ की भाषा महाराष्ट्री प्राकृत है। यत्र-तत्र अपभ्रंश का प्रभाव है। भाषा में प्रवाह एवं सरलता है। भाषा को सजीव बनाने के लिए सूक्तियों का प्रचुर प्रयोग किया गया है। यथा - हनुमान रावण को समझाते हुए कहते हैं -
पत्ते विणासकालो नासइ बुद्धिं नराण निक्खुत्तं।-(गा. 53.138)
अर्थात् - विनाशकाल आने पर मनुष्य की बुद्धि निश्चित रूप से नष्ट हो जाती है। __पउमचरियं रामचरित के अतिरिक्त अनेक कथाओं का भण्डार है। इसमें अनेकों अवान्तर कथाएँ दी गई हैं तथा परम्परागत अनेकों कथाओं को यथोचित परिवर्तन के साथ प्रसंगानुकूल बनाया गया है और कुछ नवीन कथाओं की सृष्टि की गई है। वाल्मीकि रामायण यदि संस्कृत साहित्य का आदि काव्य है तो पउमचरियं प्राकृत साहित्य का पउमचरियं के अन्तः परीक्षण में हमें गुप्तवाकाटक युग की अनेक प्रकार की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक सामग्री मिलती है। इसमें वर्णित अनेक जन-जातियों, राज्यों और राजनैतिक घटनाओं का तत्कालीन भारतीय इतिहास से सम्बन्ध स्थापित किया गया है। जैनधर्म के सिद्धान्त निरूपण की दृष्टि से पउमचरियं ऐसी रचना है जो साम्प्रदायिकता से परे है। ग्रन्थ में वर्णित अनेक तथ्यों के विश्लेषण से ज्ञात होता है कि इसमें श्वेताम्बर,
प्राकृत रत्नाकर 0165