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अधिकार में उपर्युक्त श्वेतांबरीय शतक अथवा बंधशतक नामक पाँचवें कर्मग्रंथ का अंतर्भाव हो जाता है। पाँचवे अधिकार का नाम सप्ततिका है उपर्युक्त श्वेतांबरीय छठे कर्मग्रंथ सित्तरि अथवा सप्ततिका का अंतर्भाव होता है। पंडित कैलाशचन्द्र जी शास्त्री ने पंचसंग्रहकार का समय विक्रम की आठवीं शताब्दी के पूर्व माना है। 219.पंचसंगह(चन्द्रर्षि )
पार्श्वऋषि के शिष्य श्वेतावम्बराचार्य चन्द्रर्षि महत्तर ने प्राकृत पंचसंग्रह की रचना की है। इस पर उन्होंने स्वोपज्ञवृत्ति लिखी है। चन्द्रर्षि का समय विक्रम की 9वीं-10 वीं शताब्दी माना जाता है। मलयगिरि की इस पर टीका है। इसमें 963 गाथायें हैं जो समग (शतक, सित्तरि), (सप्ततिका), कसायपाहुड (कषायप्राभृत), छकम्म (सत्कर्म) और कम्मपयडि (कर्मप्रकृति) नामक पाँच ग्रन्थों अथवा योग उपयोग विषयक मार्गणा, बंधक, बंधव्य, बंधहेतु और बंधविधि इन पाँच अर्थाधिकारों में विभक्त हैं। इन पाँचों का यहाँ संक्षिप्त विवेचन किया गया है, अतएव ग्रन्थ को पंचसंग्रह कहा जाता है। 220. पंचास्तिकाय(पंचत्थिकायो) - आचार्य कुन्दकुन्द ने जिनदेव भगवान् महावीर के सिद्धान्तों के सार को पंचास्तिकाय में संक्षिप्त रूप से निरूपित किया है। इस ग्रन्थ में जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म एवं आकाश इन पाँचों द्रव्यों का विवेचन किया गया है। इन्हें बहुप्रदेशी होने के कारण अस्तिकाय रूप कहा है। यह ग्रन्थ दो अधिकारों में विभक्त है। प्रथम अधिकार में द्रव्य का लक्षण, द्रव्य-पर्याय तथा द्रव्य-गुण की अभेदता एवं पाँचों अस्तिकायों का विशेष व्याख्यान किया है। द्वितीय अधिकार में जीव, अजीव, आस्रव, बंध, पाप, पुण्य, संवर, निर्जरा एवं मोक्ष इन नौ पदार्थों के साथ मोक्ष-मार्ग का भी निरूपण किया है। मोक्ष-मार्ग प्राप्ति में राग को बाधक बताया है तथा किंचित मात्र राग का भी आचार्य ने निषेध किया है। यथा - - तम्हा णिव्वुदिकामो रागंसव्वत्थ कुणदिमा किंचि। सोतेण वीदरागो भविओभवसायरंतरदि॥...(गा.172)
अर्थात् - निर्वाण मार्ग के अभिलाषी को किंचित मात्र भी राग नहीं करना चाहिए।इसी से वह वीतरागी हुआ संसार सागर को पार कर जाता है।
प्राकृत रत्नाकर 0 169