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193. नन्दिसूत्र (नंदित्तं )
यह अर्धमागधी आगम चूलिका के नाम से भी जाना जाता है । नन्दीसूत्र का प्रमुख विषय ज्ञानवाद है। नियुक्तिकार के अनुसार भाव एवं निक्षेप से पाँच ज्ञान को नन्दी कहते हैं। इसमें पाँच ज्ञान की सूचना देने वाले सूत्र हैं, अतः इसका नंदीसूत्र नाम सार्थक है। इसमें पाँचों ज्ञान का विशद् वर्णन उनके भेद-प्रभेदों के साथ किया गया है । नन्दीसूत्र में ज्ञान के सम्बन्ध में जो विश्लेषण किया गया है, उसका मुख्य आधार स्थानांग, समवायांग, भगवती, राजप्रश्नीय व उत्तराध्ययन सूत्र हैं । उनमें दिये गये संक्षिप्त ज्ञानवाद को नन्दीसूत्र में पूर्ण विकसित किया गया है। ज्ञान के विश्लेषण के अन्तर्गत मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय तथा केवलज्ञान की व्याख्या की गई है । सम्यक् श्रुत के प्रसंग में द्वादशांगी के आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग आदि बारह भेद किये गये हैं। जिनदासगणि महत्तर ने नंदीसूत्र पर चूर्णि की रचना की है तथा आचार्य हरिभद्र तथा आचार्य मलयगिरि ने इस पर टीकाएँ लिखी हैं ।
194. नर्मदासुंदरीकथा (नम्मयासुन्दरीकहा )
महेन्द्रसूरि द्वारा रचित नर्मदासुन्दरीकथा धर्म प्रधान कथा-ग्रन्थ है। इसका रचना काल वि.सं. 1187 है। इसमें महासती नर्मदासुंदरी के सतीत्त्व का निरूपण किया गया है। नायिका नर्मदासुंदरी अनेक कष्टों को सहन कर के भी अपने शीलव्रत की रक्षा करती है । नायिका के शीलव्रत की परीक्षा के अनेक अवसर आते हैं, किन्तु नायिका अपने व्रत पर अटल रहकर अपने शील की रक्षा करती है। धर्मकथा होते हुए भी मनोरंजन एवं कौतूहल तत्त्व इसमें पूर्ण रूप में समाविष्ट हैं। बीच-बीच में कथा को प्रभावशाली बनाने के लिए सूक्तियों का भी प्रयोग किया है । यथा - नेहं विणा विवाहो आजम्म कुणइ परिदाहं (गा. 39 ) अर्थात् - प्रेम के बिना विवाह जीवन भर दुःखदाई होता है ।
नर्मदासुंदरीकथा एक धर्मप्रधान कथा है जिसकी महेन्द्रसूरि संवत् 1187 (ईसवी सन् 1130) में अपने शिष्यों के अनुरोध पर रचना की। यह कथा गद्यपद्यमय है जिसमें पद्य की प्रधानता है। इसमें महासती नर्मदासुंदरी के चरित का वर्णन किया गया है, जो अनेक कष्ट आने पर भी शीलव्रत के पालन में दृढ़ रही ।
148 प्राकृत रत्नाकर