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भाषा के क्षेत्र में जो कार्य किया उसमें ल्युजिआ नित्ति का अध्ययन विशेष महत्व का है। उन्होंने न केवल प्राकृत के विभिन्न वैयाकरणों के मतों का अध्ययन किया है, अपितु अभी तक प्राकृत भाषा पर हुए पिशेल आदि के ग्रन्थों की सम्यर्ग समीक्षा भी की है। उनका प्रसिद्ध ग्रन्थ लेस ग्रमेंरियन्स प्राकृत्स (प्राकृत के व्याकरणकार) है, जो पेरिस से सन 1938 ई. में प्रकाशित हुआ है। नित्ति डोलची का दूसरा गन्थ डु प्राकृतकल्पतरु डेस रामशर्मन विब्लियोथिक डिले आल हेट्स इटूयड्स है। इन्होंने प्राकृत-अपभ्रंश भाषा से सम्बन्धित समस्याओं पर शोध-निबन्ध भी लिखे हैं- प्राकृत ग्रमेरिअन्स टर्डिस एट डायलेक्ट्स डु आदि। इसी समय टी. बरो का द लेंग्वेज आफ द खरोष्ट्री डोकुमेंट्स फ्राम चाईनीज तुर्किस्तान नामक निबन्ध 1937 में कैम्ब्रिज से प्रकाशित हुआ। प्राकृत मुहावरों के सम्बन्ध में विल्तोरे पिसानी ने एन अननोटिस्ड प्राकृत इडियम नामक लेख प्रकाशित किया। मागधी एवं अर्धमागधी के स्वरूप का विवेचन करने वाला डब्ल्यू ई क्लर्क का लेख मागधी एण्ड अर्धमागधी सन् 1944 ई. में प्रकाश में आया। 1948 ई. में नार्मन ब्राउन ने जैन महाराष्ट्री प्राकृत और उसके साहित्य का परिचय देने वाला जैन महाराष्ट्री प्राकृत सम केनिकल मेटेरियल इन नाम से एक आलेख लिखा।
इस शताब्दी के छठे दशक में प्राकृत के साहित्यिक ग्रन्थों पर भी पाश्चात्य विद्वानों ने दृष्टिपात किया। कुवलयमालाकथा की भाषा ने विद्वानों को अधिक आकृष्ट किया। सन् 1950 में अल्फड मास्तर ने ग्लीनिंग्स फ्राम द कुवलयमाला नामक लेख लिखा। जिसमें उन्होंने ग्रन्थ की 18 देशी भाषाओं पर प्रकाश डाला। दूसरे विद्वान् जे. क्यूपर ने द पैशाची फ्रागर्मेन्ट आफ द कुवलयमाला में ग्रन्थ की भाषा की व्याकरण-मूलक व्याख्या प्रस्तुत की। प्राकृत भाषा के अध्ययन के इस प्रसार के कारण विश्व की अन्य भाषाओं के साथ भी उसकी तुलना की जाने लगी। प्रसिद्ध भाषाशास्त्री ज्यूल्स ब्लाख ने अपने प्राकृत Cia लैटिन लैंग्वेज नामक लेख में प्राकृत और लैटिन भाषा के सम्बन्धों पर विचार किया है। 152 0 प्राकृत रत्नाकर