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उन्होंने अपने पूर्व गुरु आचार्य प्रद्युम्नसूरिरचित मूलशुद्धिप्रकरण नामक प्राकृत ग्रन्थ के ऊपर विस्तृत टीका की रचना की थी। उसी टीका में उदाहरणरूप अनेक प्राचीन कथाओं का संकलन किया था। उसमें प्रस्तुत नर्मदासुन्दरी की कथा, प्रसंगवश संक्षेप में लिखी है। दूसरी रचना के रचियता महेन्द्रसूरि हैं। इसमें 1117 गाथाएँ हैं । बीच-बीच में कितना ही गद्यभाग है इससे इसका ग्रन्थान 1750 लोक प्रमाण है। महेन्द्रसूरि ने लिखा है कि उन्होंने यह मूलकथा शान्तिसूरि नामक आचार्य के मुख से सुनी थी। इस कथा में नर्मदासुन्दरी द्वारा अनेक विचित्र परिस्थितियों में पड़कर अपने सतीत्व की रक्षा करने की अद्भुत कथा का वर्णन
महेन्द्रसूरि की रचना बहुत सरल, प्रासादिक और सुबोधात्मक है। कथा की घटना बच्चे से बूढ़े तक हृदयंगम कर सकते हैं, ऐसी सरसरीति से वह कही गई है। बीच-बीच में लोकोक्ति और सुभाषितों की छटा भी देखते बनती है। प्राकृत भाषा के अभ्यासियों के लिए यह सुन्दर रचना है। महेन्द्रसूरि ने यह रचना अपने शिष्य की अभ्यर्थना से ही बनाई थी। 195. नये कर्मग्रन्थ(नव्य कर्मग्रन्थ) . तपागच्छीय जगचन्द्रसूरि के शिष्य तथा सुदंसणचरिय, भाष्यत्रय सिद्धपंचाशिकासूत्रवृत्ति, श्राद्धदिनकृत्यवृत्ति, वन्दारुवृत्ति आदि के कर्ता देवेन्द्रसूरि (ईसवी सन् 1270) ने कर्मविपाक, कर्मस्तव, बन्धस्वामित्व, षडशीति और शतक नाम के पाँच कर्मग्रन्थों की रचना की है। इन पर उनका स्वोपज्ञ विवरण भी है। प्राचीन कर्मग्रन्थों को आधार मानकर इनकी रचना की गई है, इसीलिए इन्हें नव्य कर्मग्रन्थ कहा जाता है। पहले कर्मग्रंथ में 60 गाथायें हैं, जिनमें ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्म, उनके भेद प्रभेद और उनके विपाक का दृष्टान्तपूर्वक प्रतिपादन किया गया है। दूसरे कर्मग्रन्थ में 34 गाथायें हैं। यहाँ 14 गुणस्थानों का स्वरूप और इन गुणस्थानों में कर्मप्रकृतियों के बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ता का प्ररूपण है। तीसरे कर्मग्रन्थ में 24 गाथायें हैं, इनमें मार्गणा के आश्रय से जीवों के कर्मप्रकृतिविषयक बंध-स्थिति का वर्णन है। चौथे कर्मग्रन्थ में 86 गाथायें हैं, इनमें जीवस्थान मार्गणास्थान गुणस्थान भाव और
150 0 प्राकृत रत्नाकर