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नर्मदासुन्दरी सहदेव की भार्या सुन्दरी की कन्या थी। महेश्वरदत्त के जैनधर्म स्वीकार कर लेने पर महेश्वरदत्त का विवाह नर्मदासुन्दरी के साथ हो गया। विवाह का उत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया गया। महेश्वरदत्त नर्मदासुन्दरी को साथ लेकर धन मकान के लिये यवनद्वीप गया। मार्ग में अपनी पत्नी के चरित्र पर संदेह हो जाने के कारण उसने उसे वहीं छोड़ दिया। निद्रा से उठकर नर्मदासुन्दरी ने अपने आपको एक शून्य द्वीप में पाया और प्रलाप करने लगी। कुछ समय पश्चात् उसे उसका चाचा वीरदास मिला और वह नर्मदासुन्दरी को बब्बरकूल (एडन के आसपास का प्रदेश) ले गया। यहीं से नर्मदासुन्दरी का जीवन संघर्ष आरम्भ होता है। यहाँ पर वेश्याओं का एक मुहल्ला था, जिसमें सात सौ गणिकाओं की स्वामिनी हरिणी नाम की एक सुप्रसिद्ध गणिका निवास करती थी। सब गणिकायें उसके लिये धन कमाकर लातीं और वह उस पर धन का तीसरा या चौथा भाग राजा को दे देती। नर्मदासुन्दरी ने हरिणी वेश्या की एक न सुनी। उसने दुष्ट कामुक पुरुषों को बुलाकर नर्मदासुन्दरी के शीलव्रत को भंग करने की भरसक चेष्टा की, फिर अपने दासों से लंबे डंडों से उसे खूब पिटवाया। लेकिन नर्मदासुन्दरी अपने व्रत से विचलित न हुई। वहाँ करिणी नाम की एक दूसरी वेश्या रहती थी। उसके नर्मदासुन्दरी की सहायता करने के लिये अपने घर में उसे रसोइयन रख ली। कुछ समय पश्चात् हरिणी की मृत्यु हो गई और नर्मदासुन्दरी को टीका करके सजधज के साथ उसे प्रधान गणिका के पद पर बैठाया गया। अन्त में वह जिनदेव नाम के श्रावक से मिली। नर्मदासुन्दरी ने अपना धर्मबंधु समझ कर जिनदेव से सारी बातें कहीं। जिनदेव वीरदास का मित्र था, वह नर्मदासुन्दरी को उसके पास ले गया, और इस प्रकार कथा की नायिका को दुखों से छुटकारा मिला। अन्त में उसने सुहस्तिसूरि के चरणों में बैठकर श्रमणी दीक्षा ग्रहण की।
नर्मदासुन्दरी के कथानक को लेकर कई कवियों ने प्राकृत, अपभ्रंश और गुजराती में काव्य लिखे। उनमें देवचन्द्रसूरि और महेन्द्रसूरिकृत प्राकृत रचना प्रकाशित हुई है। अपभ्रंश में जिनप्रभसूरि की और गुजराती में मेरूसुन्दर की रचना भी प्रकाश में आई है। पहली देवचन्द्रसूरिकृत रचना 250 गाथा प्रमाण है।
प्राकृत रत्नाकर 0149