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उल्लेख मिलता) है। कुवलयमालाकार के कथनानुसार जोणिपाहुड में कही हुई बात कभी असत्य नहीं होती। जिनेश्वरसूरि ने अपने कथाकोषप्रकरण में भी इस शास्त्र का उल्लेख किया है। इस ग्रंथ में 800 गाथायें हैं। कुलमण्डन द्वारा विक्रम संवत 1473 ईसवी सन् 1417 में रचित विचारामृतसंग्रह ( पृष्ठ 9 आ ) में योनिप्राभृत को पूर्वश्रुत से चला आता हुआ स्वीकार किया है। इस ग्रन्थ की पाण्डुलिपियों की खोज जारी है।
जोणिपाहुड (योनिप्राभृत) निमित्तशास्त्र का अति महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। दिगंबर आचार्य धरसेन ने इसकी प्राकृत में रचना की है। वे प्रज्ञाश्रमण नाम से भी विख्यात थे। वि. सं. 1556 में लिखी गई एवं हट्टिप्पणिका नामक ग्रंथ सूची के अनुसार वीर - निर्वाण के 600 वर्ष पश्चात् धरसेनाचार्य ने इस ग्रंथ की रचना की थी । कुष्मांडी देवी द्वारा उपदिष्ट इस पद्यात्मक कृति की रचना आचार्य धरसेन ने अपने शिष्य पुष्पदंत और भूतबलि के लिये की। इसके विधान से ज्वर, भूत, शाकिनी आदि दूर किये जा सकते हैं। यह समस्त निमित्तशास्त्र का उद्गमरूप है। समस्त विद्याओं और धातुवाद के विधान का मूलभूत कारण है। आयुर्वेद का साररूप है। इस कृति को जाननेवाला कलिकालसर्वज्ञ और चतुर्वर्ग का अधिष्ठाता बन सकता है । बुद्धिशाली लोग इसे सुनते हैं तब मंत्र-तंत्रावादी मिथ्यादृष्टियों का तेज निष्प्रभ हो जाता है। इस प्रकार कृति का प्रभाव वर्णित है। इसमें एक जगह उल्लेख है कि प्रज्ञाश्रमण मुनि ने बालतंत्र संक्षेप में कहा है । योनिप्राभृत में इस प्रकार एक उल्लेख है :अग्गेणिपुव्वनिग्गयपाहुडसत्थस्स मज्झयारम्मि । किंचि उद्देसदेसं धरसेणो वज्जियं भणई ॥
गिरिउज्जितछिएण पच्छिमदेसे सुरट्ठगिरिनयरे । बुतं उद्धरियं दूसमकालप्पयावम्मि ॥
- प्रथम खण्ड
अट्ठसवीस) सहस्सा गाहाणं जत्थ वन्निया सत्थे । अग्गेणिपुव्वमज्झे संखेवं वित्थरे मत्तुं ॥
122 0 प्राकृत रत्नाकर
- चतुर्थ खण्ड