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का प्रतिनिधित्व करते है । आर्यिका विशुद्धमति माताजी ने दक्षिण की कन्नड़ प्रति एवं अन्य प्रतियों के आधार पर इस ग्रन्थ को 6882 गाथाओं से युक्त किया है। उन्होंने गद्य के अक्षरों की गाथा संख्या 1107 दी है। इसमें आधुनिक गणित प्रकरण एवं विविध संकेत चित्र भी दिये गये हैं, जिससे इसके विषय का उचित सम्मान हुआ है। तिलोयपण्णति में तीन लोक के स्वरूप, आकार, प्रकार, विस्तार क्षेत्रफल और युगपरिवर्तन आदि विषयों का निरूपण किया गया है। प्रसंगवश जैन सिद्धान्त, पुराण और भारतीय इतिहास विषयक सामग्री भी निरूपित है। यह ग्रन्थ नौ महाधिकारों में विभक्त है । इन नौ महाधिकारों के अतिरिक्त अवान्तर अधिकारों की संख्या 180 है । द्वितीयादि महाधिकारों के अवान्तर अधिकांश क्रमशः 15, 24, 16, 16, 17, 17, 21, 5 और 49 है। चतुर्थ महाधिकार के जम्बूद्वीप, धातकीखण्डद्वीप और पुष्करद्वीप नाम के अवान्तर अधिकारों में से प्रत्येक के सोलह- सोलह अन्तर अधिकार है। इस प्रकार इस ग्रन्थ के मध्य में स्क्कूि, दण्ड, धनुष आदि पारिभाषिक शब्दों का भी यथाप्रसंग उल्लेख है। बीचसूक्ति-गाथाएँ भी प्राप्त होती हैं।
164. त्रिलोकसार
इस महत्वपूर्ण ग्रंथ में 1018 गाथाएँ हैं। इसके लेखक आचार्य नेमिचन्द्र हैं। यह करणानुयोग का प्रसिद्ध ग्रंथ है। इसका आधार त्रिलोकप्रज्ञप्ति ग्रंथ है। इसमें सामान्य लोक, भवन, व्यन्तर, ज्योतिष, वैमानिक और नर तिर्यक् लोक ये अधिकार हैं। जम्बूद्वीप, लवणसमुद्र मानुष क्षेत्र भवनवासियों के रहने के स्थान, आवास भवन, आयु का विस्तृत आदि का विस्तृत वर्णन किया है । ग्रह, नक्षत्र, प्रकीर्णक, तारा एवं सूर्य-चन्द्र के आयु विमान गति परिवार आदि का भी सांगोपांग वर्णन पाया जाता है । त्रिलोक की रचना के संबंध में सभी प्रकार की जानकारी इस ग्रंथ से प्राप्त की जा सकती है ।
165. दशरूपक
दशरूपक के कर्त्ता धनंजय मालवा के परमारवंश के राजा मुंज के राज कवि थे। इनका समय 10वीं शताब्दी माना गया है। भरत के नाट्यशास्त्र पर आधारित यह अलंकारशास्त्र कारिकाओं में रचा गया है। इस ग्रन्थ में प्राकृत के 26 पद्य
प्राकृत रत्नाकर 133