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(32, 1551)। महिलारत्न, नदी और साधु के संबंध में कहा गया है कि उनका मूल खोजने की आवश्यकता नहीं, वे लोग पवित्र ही माने जाते हैं।
तरंगवती कथा का संक्षिप्त सार तरंगलोला में 1642 गाथाओं में तरंगवती के आदर्श प्रेम एवं त्याग की कथा वर्णित है। समस्त कथा उत्तम-पुरुष में वर्णित है। तरंगवती का राजगृह में आर्यिका के रूप में आगमन होता है। वहाँ आत्मकथा के रूप में वह अपनी कथा कहती है। हंस-मिथुन को देखकर प्रेम जागृत होने पर वह प्रिय की तलाश में संलग्न होती है तथा इष्ट प्राप्ति पर विवाह करती है। अन्त में तरंगवती के वैराग्य एवं दीक्षा का वर्णन है । यह कथा शृंगार रस से प्रारंभ होकर करुण रस में ओत-प्रोत होती हुई, अंत में शांत रस की ओर मुड़ जाती है। आचार्य ने नायिका के वासनात्मक प्रेम का उदात्तीकरण करते हुए आत्मशोधन की प्रक्रिया द्वारा राग को विराग में परिवर्तित किया है। नायिका तरंगवती जैसी प्रेमिका भी मुनिराज के दर्शन से प्रेरित होकर भोग-विलासों से मुक्त होकर सुव्रता साध्वी बन जाती है। शृंगार, करुणा एवं शांत रस से ओत-प्रोत यह कथा-ग्रन्थ पात्रों के आन्तरिक एवं बाह्य अन्तर्द्वन्द्वों का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करता है। शील-निरूपण की दृष्टि से नायक एवं नायिका दोनों का चरित्र विकसित है। वस्तुतः यह एक धार्मिक उपन्यास है। 163. तिलोयपण्णत्ति : (यतिवृषभ) __ शौरसेनी प्राकृत के समर्थ आचार्यों में यतिवृषभ का नाम उल्लेखनीय है। शौरसेनी प्राकृत के प्रथम ग्रन्थ कसायपाहुड पर चूर्णिसूत्रों की रचना करने वाले यतिवृषभ हैं इनका दूसरा ग्रन्थ तिलोयपण्णति है। इस ग्रन्थ में जैन भूगोल और जैन संघ के इतिहास का विस्तृत विवरण है। अतः इसमें कई गाथाएँ प्रक्षिप्त भी स्वीकार की गई हैं। यतिवृषभ के समय-निर्धारण में विद्वानों ने पर्याप्त प्रयत्न किया है। उनके अनुसार यतिवृषभ को समय ई. सन् 176 के आस-पास सिद्ध होता है। आचार्य कुन्दकुन्द के बाद इनका समय स्वीकार किया गया है। यतिवृषभ की अब तक दो रचनाएँ ही प्राप्त हैं। उनके आधार पर इन्हें जैन आगम ग्रन्थों का परम ज्ञाता माना जाता है। सातवीं शताब्दी और बाद के विद्वानों ने इनको आदरपूर्वक स्मरण किया है। इनके गुरुओं में आर्यमंक्षु और नागहिस्त की गणना होती है।
प्राकृत रत्नाकर 0131