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अभयदेवसूरि और उनके शिष्य प्रसन्नचन्द्र हुए। प्रसन्नचन्द्र के शिष्य सुमतिपात्रक
और इनके शिष्य थे देवभद्रसूरि। 174.देवभद्रसूरि ___ कहारयणकोस के रचयिता देवभद्रसूरि (गुणचन्द्रगणि) हैं। महावीरचरियं की रचना उन्होंने वि.सं. 1158 में भरु कच्छ (भड़ौच) नगर के मुनिसुव्रत चैत्यालय में समाप्त की थी। इस ग्रन्थ में प्रणेता ने अपनी अन्य कृतियों में पासनाहचरिय और संवेगरंगजोला (कथाग्रन्थ) का उल्लेख किया है। 175.देवर्द्धिगणिक्षमाश्रमण
श्रमण भगवान् महावीर के धर्मशासन में हुए महान् आचार्यों में 28वें वाचनाचार्य आर्य देविर्द्धिगणि क्षमाश्रमण का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। वी.नि.सं. 980 में भविष्यद्रष्टा आचार्य देवर्द्धि क्षमाश्रमण वे वल्लभी नगरी में श्रमण संघ का सम्मेलन आयोजित किया। उसमें उन्होंने न केवल आगमवाचना द्वारा द्वादशांगी के विस्तृत पाठों को सुव्यवस्थित, सुसंकलित एवं सुगठित किया अपितु भविष्य में सदा-सर्वदा बिना किसी प्रकार की परिहानि के आगम यथावत् बने रहें, इस अभिप्राय से एकादशांगी सहित सभी सूत्रों को पुस्तकों के रूप में लिपिबद्ध करवाकर अपूर्व दूरदर्शिता का परिचय दिया।
देवर्द्धिगण क्षमाश्रमण का सौराष्ट्र प्रान्त के वैरावल पाटण में जन्म हुआ। उस समय वहाँ के शासक महाराज अरिदमन थे। उनके उच्चाधिकारी काश्यप गोत्रीय कामर्द्धि क्षत्रिय की पत्नी कलावती धीरता गम्भीरता आदि गुणों के धारक एक पूर्व के ज्ञाता एवं आचाररिनष्ठ समर्थ वाचनाचार्य थे। अंतिम पूर्वधर आचार्य देवर्द्धिक्षमाश्रमण वी.नि.सं. 1000 में स्वर्गस्थ हुए। अतः उनका समय ईसा की 176. देवसेन आचार्य
आचार्य देवसेन प्राकृत भाषा के उद्भट विद्वान् थे। मालवा की धारा नगरी इनका प्रमुख साहित्यिक केन्द्र था। राजस्थान में भी ये प्रायः बिहार करते रहते थे
और जन-जन में सद्साहित्य और सद्धर्म का प्रचार किया करते थे। ये दर्शन एवं सिद्धान्त के प्रकाण्ड विद्वान् थे। इतिहास में उन्हें रुचि थी तथा देश एवं समाज में व्याप्त बुराइयों की निन्दा करने में यह कभी पीछे नहीं रहते थे। पं. नाथूराम प्रेमी ने इनकी चार कृतियां स्वीकार की हैं जिनके नाम हैं- दर्शनसार, भावसंग्रह,
प्राकृत रत्नाकर 0139