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मगध की प्राकृत कहा गया है। शौरसेनी और मागधी प्राकृत के मेल से निर्मित यह अर्धमागधी प्राकृत साहित्य के लिए नयी भाषा होने के कारण इसके नाम का उल्लेख भी इन आगम ग्रंथों में किया गया। यह अर्धमागधी प्राकृत केवल श्वेताम्बर परम्परा के धार्मिक ग्रंथों की भाषा बनी रहे, इस कारण पांचवीं शताब्दी के बाद इस अर्धमागधी प्राकृत में फिर अन्य कोई ग्रंथ नहीं लिखा गया। क्योंकि यह विशिष्ट प्राकृत भाषा जन-सामान्य में प्रचलित भी नहीं थी। वह देवभाषा, आर्ष भाषा बन कर रह गयी। इसलिए श्वेताम्बर परम्परा के परवर्ती धार्मिक कथा-ग्रंथों और व्याख्या साहित्य के लिए महाराष्ट्री प्राकृत का प्रयोग किया गया, जो शौरसेनी प्राकृत का विकसित रूप है। दिगम्बर परम्परा ने धार्मिक कथा और काव्य ग्रन्थों के लिए प्राकृत से विकसित अपभ्रंश भाषा का प्रयोग किया। इस प्रकार भगवान् महावीर के बाद लगभग दो हजार वर्षों तक जैन ग्रन्थों के साथ शौरसेनी, अर्धमागधी, महाराष्ट्री आदि प्राकृतों का सम्बन्ध बना रहा है। अतः प्राकृत जैन परम्परा की मूल भाषा है। 140. जैन, जगदीश चन्द्र . डॉ. जगदीशचन्द्र जैन, प्राकृत भाषा एवं साहित्य के मूर्धन्य विद्वान् थे। आपका जन्म 20 जनवरी 1909 को उ.प्र. के मुजफ्फरनगर जिले के बसेरा गांव में हुआ था। आपने बनारस में शिक्षा प्राप्त की। दर्शनशास्त्र में आपने एम.ए. किया और बम्बई में हिन्दी के प्रोफेसर रहे। आपने प्राकृत, जैन आगम, कथासाहित्य आदि विषयों पर 50-60 पुस्तकें लिखी हैं। आप 1932-33 में शांतिनिकेतन में भी शोधछात्र के रूप में रहे। 1958-59 में प्रो. जैन प्राकृत शोधसंस्थान वैशाली में भी प्रोफेसर रहे। आप हिन्दी पढ़ाने के लिए पीकिंग यूनिवर्सिटी, चीन में रहे। 1972-74 में डॉ. जैन जर्मनी के कील यूनिसर्विटी में रिसर्च प्रोफेसर के रूप में कार्य किया। यूरोप के विभिन्न विश्वविद्यालयों में डॉ. जैन के व्याख्यान होते रहते
प्रोफेसर जगदीशचन्द्र जैन की प्रसिद्ध पुस्तकें हैं- प्राकृत साहित्य का इतिहास, प्राकृत और कथा साहित्य, जैन आगमों में भारतीय समाज आदि जो हिन्दी और अंग्रेजी में प्रकाशित हैं। आपने स्याद्वादमंजरी का हिन्दी अनुवाद भी किया है। प्राकृत की पुस्तक वसुदेवहिण्डी पर आपका विशेष शोधकार्य रहा है।
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