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हैं। उदाहरण के लिए पूजा की भावना मात्र से स्वर्गसुख की प्राप्ति होती है, इसके लिए चौथी गाथा में जिनदत्त, सूरसेना, श्रीमाली और रोरनारी के नाम दृष्टान्त रूप में दिये गये हैं। प्रथम 17 गाथाओं में सब कथाएँ जिनपूजा और साधुदान से सम्बन्धित हैं। गाथाओं पर गद्य-पद्य मिश्रित एक संस्कृत टीका है पर उसमें दृष्टान्त कहानियाँ प्राकृत में दी गई हैं। कथाकार ने इसमें आगमवाक्य तथा संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश के कुछ पद्यों को उद्धृत किया है। . 68. कथाकोश
जिनेश्वर ने भी 239 गाथाओं में कथाकोश की रचना की है। इसकी वृत्ति प्राकृत में है। जिनभद्र ने कथासमास (उपदेशमाला) नामक कथाकोश की प्राकृत में रचना की। इसका समय अज्ञात है। : 69. कथाकोश (भरतेश्वरबाहुबलिवृत्ति)
___सोमसुन्दर के पट्टशिष्य सहस्त्रावधानी मुनि सुन्दरगणि के शिष्य शुभशीलगणि ने वि.सं. 1509 (ईसवी 1452) में कथाकोश (भद्रेश्वरबाहुबलि वृत्ति) की रचना की (मूल और वृत्ति सहित देवचन्द्र लालभाई पुस्तकोद्धार, बम्बई, 1932, 1937, दो भागों में प्रकाशित) मूलग्रंथ में प्राकृत की 13 गाथायें हैं जिनका आरंभ भरहेसर बाहुबलि पद से होता है। इन गाथाओं में सूचक-शब्दों द्वारा 100 कथानकों में धर्मपरायण स्त्री पुरुषों के नामों की श्रृंखला प्रस्तुत है। सूचक शब्दप्रधान इन गाथाओं की तुलना नियुक्ति-गाथाओं से की जा सकती है। अधिकांश कथायें प्राचीन जैन साहित्य में उपलब्ध होती हैं। प्रस्तुत संस्कृत वृत्ति में गद्य-पद्यमिश्रित कथायें दी हुई है, बीच-बीच में प्राकृत उद्धरण हैं । यह वृत्ति कथाओं का कोश है। शत्रुजय कथाकोश शुभशीलगणि का दूसरा कथाकोश ह जिसे धर्मघोषकृत शजयकल्प की वृत्ति के रूप में वि.स. 1518(ईसवी सन् 1431) में रचा। यह वृत्ति विस्तृत कथाओं का कोश है। इसमें 100 धर्मात्मा गिनाये गये हैं। इनमें 53 पुरुष (पहला भरत और अन्तिम मेघकुमार) और 47 स्त्रियाँ (पहली सुलसा और अन्तिम रेणा) हैं जो धर्म
और तप साधनाओं के लिए जैनों में सुख्यात हैं। अधिकांशतः ये प्राचीन जैन कथा-साहित्य में उपलब्ध कथाओं के ही पात्र हैं। टीका में सब कथाएँ ही कथाएँ हैं, इसलिए इसे कथाकोश भी कहा जाता है।
480 प्राकृत रत्नाकर