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की जननी प्राकृतभाषा की दुखद उपेक्षा है, अतः उसने उसके समाधान हेतु निम्न प्रकार सराहनीय प्रयत्न किये- .
1. अखिल भारतीय शौरसेनी प्राकृत संसद की स्थापना, 2. आचार्य कुन्दकुन्द स्मृति (वार्षिक) व्याख्यानमाला का आयोजन 3. प्राकृत-शिक्षण 4. प्रकाशन 5. प्राकृतविद्या पत्रिका 6. पुरस्कार 7. प्राकृत दिवस एवं प्राकृत संगोष्ठियाँ
93. कुमारवालचरियं (द्वयाश्रयकाव्य) .
विशुद्ध आचरण करने वाले महापुरुषों एवं न्यायपूर्ण जीवन जीने वाले राजाओं की जीवनियाँ जैन साहित्य में धर्मकथानुयोग के अन्तर्गत कई ग्रन्थों में लिखी गयी हैं। ऐसे ग्रन्थों को ऐतिहासिक काव्य भी कहा जा सकता है, यद्यपि उनमें काव्यतत्व अधिक एवं इतिहास तत्व कम प्राप्त होता है। आचार्य हेमचन्द्रकृत द्वयाश्रयकाव्य इसी कोटि की रचना है। इसमें काव्य, इतिहास, जीवनी एवं व्याकरण प्रयोग इन सबका मिश्रण है।
कुमारवालचरियं (व्याश्रयकाव्य) के रचयिता 12 वीं शताब्दी के वैयाकरण आचार्य हेमचन्द्र हैं। इस काव्य में आचार्य ने राजा कुमारपाल के चरित वर्णन के माध्यम से प्राकृत व्याकरण के नियमों को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। व्याश्रयकाव्य होने के कारण इसमें व्याकरण के नियमों के साथ-साथ काव्यतत्त्व भी प्रचुरता से विद्यमान हैं। यह महाकाव्य दो विभागों में है। प्रथम विभाग के 20 सर्गों में सिद्धहेमशब्दानुशासन के प्रारम्भिक सात अध्यायों में वर्णित संस्कृत व्याकरण के नियमों को समझाया गया है। दूसरे विभाग में आठ सर्ग हैं, जिनमें आठवें अध्याय में वर्णित प्राकृत व्याकरण के नियमों को समझाया गया है। दूसरे विभाग के प्रथम छः सर्गों में महाराष्ट्री प्राकृत के नियम समझाये गये हैं तथा शेष दो सर्गों में शौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिका-पैशाची और अपभ्रंश भाषा के उदाहरण प्रस्तुत किये हैं। इस महाकाव्य की कथावस्तु अत्यंत लघु है। राजा कुमारपाल के एक दिन की घटनाओं को विभिन्न अलंकृत वर्णनों द्वारा प्रस्तुत
प्राकृत रत्नाकर 071