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हेमचन्द्रसूरि का गुजरात के राज्य परिवार से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। उनके पाण्डित्य से प्रभावित होकर गुजरेश्वर जयसिंह सिद्धराज ने उन्हें व्याकरण ग्रन्थ लिखने की प्रेरणा दी थी। हेमचन्द्रसूरि ने अपनी अनन्य प्रतिभा का प्रयोग करते हुए जो संस्कृत और प्राकृत भाषा का प्रसिद्ध व्याकरण लिखा उसका नाम सिद्धहेमव्याकरण रखा, जिससे सिद्धराज का नाम भी अमर हो गया। हेमचन्द्र का कुमारपाल के साथ भी घनिष्ट संबंध था। कुमारपाल का राज्याभिषेक वि.स.1194 में हुआ था किन्तु इस राज्यप्राप्ति की भविष्यवाणी हेमचन्द्र ने सात वर्ष पहले ही कर दी थी। कुमारपाल ने हेमचन्द्र से बहुत कुछ शिक्षा प्राप्त की थी।
कुमारपाल चरित नामक यह काव्य यद्यपि चरित नामान्त है, किन्तु इसमें नायक कुमारपाल के चरित का विश्लेषण करने के लिए कवि के पास विस्तृत कथावस्तु नहीं है। कथावस्तु का आयाम इतना छोटा है कि चरितकाव्य की विशेषताएँ इसमें दी नहीं जा सकी हैं। इस ग्रन्थ को महाकाव्य कहा जाता है। काव्यात्मक दृष्टि से इस रचना में महाकाव्य के लक्षण विद्यमान हैं। किन्तु कवि के व्याकरणात्मक उद्देश्य की प्रधानता होने के कारण ग्रन्थ के काव्य बीज अधिक प्रस्फुटित नहीं हो सके हैं। फिर भी कवि ने इस ग्रन्थ में सुन्दर, मनोहारी वर्णनों की योजना कर अलंकारों का सुन्दर प्रयोग है । ग्रन्थ में उपमा, उत्प्रेक्षा, दृष्टान्त, दीपक, अतिश्योक्ति, रूपक, भ्रान्तिमान आदि अलंकारों का प्रयोग काव्य को सुन्दर बना देता है। जिन मंदिर में जिनस्तुति करते हुए कुमारपाल कहता है कि हे भगवन्! जैसे खाई का जल अनेक कमलों से सुशोभित होता है, जैसे जंगल कदम्ब वृक्षों में मनोहारी लगता है उसी प्रकार से हे जगत् के शोभारूप! कदम्ब पुष्पों की माला से सुशोभित आपके चरणों से यह सम्पूर्ण पृथ्वी सुशोभित हो रही है -
फलिहा-जलं वहुब्ठम्बुजेहि जह-जह वणं च नीमेहि। - जग-सिरि -नीवावेडय सहइ मही तह तह पएहिं ॥ 2.54 ॥
कुमारपालचरियं का काव्यात्मक महत्त्व ही नहीं हैं अपितु यह प्राकृत भाषा एवं व्याकरण की दृष्टि से भी अद्भुत रचना है। संस्कृत साहित्य में जो भट्टिकाव्य का महत्त्व है, प्राकृत सहित्य में वही स्थान कुमारपालचरियं ने प्राप्त
प्राकृत रत्नाकर 073