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इसमें काव्य-लेखक ने कथाक्रम को ऐसा व्यवस्थित किया है कि पाठक की जिज्ञासा और कुतूहल प्रारंभ से अन्त तक बने ही रहते हैं। इसमें वर्णनों की विविधता देखी जाती है। यह काव्य प्राकृत गद्य और पद्य के सुन्दर नमूने प्रस्तुत करता है। यहाँ धार्मिक कथा का आदर्श रूप दिया गया है। नायक को अपनी वीरता प्रकट करने का कहीं अवसर भी नहीं आया। यह कृति परवर्ती कवियों का आदर्श रही है। 124. जंबूसामिचरियं(जिनविजयकृत)
यह जंबूसामिचरियं ग्रन्थ प्राकृत चरितों में अपनी विशेषता रखता है क्योंकि इसकी रचना ठीक उसी प्रकार की अर्ध-मागधी प्राकृत में उसी गद्य-शैली से हुई है जैसी आगमों की। वर्णनों को संक्षेप में बतलाने के लिए यहाँ भी 'जाव', 'जहा' आदि का उपयोग किया गया है। इस से यह रचना आगमों के संकलनकाल (5वीं शता.) के आस पास की प्रतीत होती है परन्तु ग्रन्थ के अन्त में एक प्राकृत पद्य से सूचित किया गया है कि इस ग्रन्थ को विजयदया सूरीश्वर के आदेश से जिनविजय ने लिखा, और इस ग्रन्थ की प्रति सं. 1814 के फाल्गुन सुदी 9 शनिवार के दिन नवानगर में लिखी गई थी। किन्तु वास्तविक रचनाकाल वि. सं. 1775 से 1809 के बीच आता है क्योंकि तपागच्छ-पट्टावली में 64 वें पट्टधर विजयदयासूरि का यही समय दिया गया है। जिनविजय नाम के अनेक मुनि हुए हैं। उनमें एक क्षमा विजय के शिष्य थे और दूसरे माणविजय के शिष्य जो कि विजयदयासूरि के समकालीन बैठते हैं। अधिक संभावना है कि वे माणविजय के शिष्य हों क्योंकि उनकी श्रीपालचरित्ररास, धन्नशालिभद्ररास आदि रचनाएँ मिलती हैं। 125. जम्बुद्दीवपण्णत्ती (उपांग) ___ अर्धमागधी आगम साहित्य में जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति को कहीं पाँचवा उपांग माना है तो कहीं छठवाँ । इस उपांग में एक अध्ययन एवं सात एवं वक्षस्कार (प्रकरण) हैं। इनमें क्रमशः भरतक्षेत्र, कालचक्र, भरत चक्रवर्ती, चुल्ल हिमवंत, जिनजन्माभिषेक, जम्बूद्वीप एवं ज्योतिष्क देवों का वर्णन है। प्रस्तुत आगम भूगोल की दृष्टि से अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है । जैन दृष्टि से ऋषभदेव का प्रागऐतिहासिक
प्राकृत रत्नाकर 0 107