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आदि की रचना हुई। बाणभट्ट, मम्मट, वाग्भट्ट आदि सभी अलंकारशास्त्रियों ने इस मुक्तककाव्य की प्रशंसा की है। इसका प्राचीन नाम गाहाकोस है, किन्तु सौसौ के समूह में सात सौ गाथाओं का संकलन होने के कारण इसका गाथासप्तशती नाम सार्थक है। मुक्तककाव्य की परम्परा में इस काव्य-ग्रन्थ का विशेष स्थान है। इसकी प्रत्येक गाथा स्वतंत्र रूप से भाव अभिव्यक्ति एवं रसानुभूति कराने में सक्षम है।
वस्तुतः प्राकृत लोकभाषा थी, अतः प्राकृत के इस मुक्तककाव्य में लोकजीवन के विविध चित्रों को ही उकेरा गया है। कवि ने प्रकृति की गोद में निवास करने वाले ग्रामवासियों के उन्मुक्त जीवन, उनकी सरलता, आदर्श-प्रेम एवं मानवीय संवेदनाओं की सुन्दर अभिव्यक्ति की है। सामान्य नायकनायिकाओं को लक्ष्य करके उनके विभिन्न मनोभावों को चित्रित करने का प्रयास किया है। शृंगारिक भावनाओं तथा प्रेम की पीड़ा की अभिव्यक्ति अत्यंत मार्मिक है। यथा -
धण्णा ता महिलाओ जा दइयं सिविणए वि पेच्छन्ति।। णि व्विअ तेण विणा ण एइ का पेच्छए सिविणम्॥..(गा. 4.97)
अर्थात् - वे महिलाएँ धन्य हैं, जो प्रिय को स्वप्न में देखती हैं। उसके बिना तो नींद भी नहीं आती। स्वप्न क्या देखेंगी?
गाथासप्तशती में संकलित गाथाएँ किसी एक विषय से सम्बन्धित नहीं हैं, अपितु ग्रामीण जीवन के विविध चित्रों का इसमें सजीव अंकन हुआ है। ग्रामीण जीवन के कवि ने अनूठे चित्र खींचे हैं। प्रायः अधिकतर गाथाओं के विषय सरल ग्राम जीवन से ही सम्बन्धित हैं। ग्रामीण बाला के उल्लास, खुशी एवं प्रफुल्लता का यह चित्र दृष्टव्य है -
अप्पत्तपत्तअंपाविऊणणवरंगअंहलिअसोण्हा। अह तणुई ण माअइ रुन्दासुविगामरच्छासु॥...(गा. 3.41) अर्थात्- देखो! किसान की मुग्धा बहू, दुर्लभ नवीन साड़ी को पाकर असीम उल्लास से युक्त, वह तन्वी गाँव की चौड़ी गलियों में भी नहीं समा रही है।
940 प्राकृत रत्नाकर