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सकूँ तो उसे स्वीकार कर लेना और यदि उसमें कहीं चूक जाऊँ तो विपरीत अभिप्राय छल ग्रहण न कर लेना। आचार्य कुन्दकुन्द तात्विक विवेचन में अपनी मौलिकता रखते हैं। उनके द्वारा किया शुद्धात्मा का विशद विवेचन अन्यत्र दुर्लभ है। आत्मा के बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परम्परा इन तीनों भेदों तथा उनके स्वरूप का प्रतिपादन भी अद्वितीय है।
आचार्य कुन्दकुन्द की रचनाओं में लोक-कल्याण की भावना स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। रचना में प्रवृत्त होने का एक मात्र कारण जीव- मात्र की भलाई करना रहा है। वे कहते हैं कि जितने वचनपथ हैं, उतने नयवाद है। और जितने नयवाद हैं उतने मत है। सभी मत और सम्प्रदाय मानव के कल्याण के लिए होने चाहिए। मानव श्रेष्ठ हैं वह कितनी मत एवं सम्प्रदाय के पीछे नहीं है। . इसलिए किसी भी मत और धर्म के पालन के लिए मनुष्य को रोक-टोक नहीं होना चाहिए। मानव अपने गुणों के कारण संसार के सब प्राणियों में श्रेष्ठ है। शरीर वन्दन योग्य नहीं होता, कुल और जाति भी वन्दनीय नहीं होते। गुणहीन श्रमण या श्रावक की कोई वन्दना नहीं करता (दर्शनपाहुड गाथा 27) । अतः मानवीय गुणों का धर्म-साधना के द्वारा विकास करने की प्रेरणा आचार्य कुन्दकुन्द प्रदान करते है।
वस्तुतः आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने वाङ्मय द्वारा मानव मात्र के हित का मार्ग प्रशस्त किया है। उनके उपदेश मानवीय गुणों के विकास का ही संदेश देते हैं। लोक-कल्याण की भावना उनकी रचनाओं में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। बोधपाहुड में धर्म की परिभाषा देते हुए उन्होंने कहा है धम्मो दया विसुद्धो(गा. 25) अर्थात् धर्म वही है जो दया या अनुकंपा से युक्त हो । उनका मानना था कि धर्म में सच्ची श्रद्धा मनुष्य को पापरहित, दृढ़ एवं मानवीय गुणों से युक्त बनाती है। आचार्य कुन्दकुन्द आगम परम्परा के संवाहक आचार्य के साथ ही एक ऐसे क्रान्तिकारी सन्त थे, जिन्होंने अनेकान्त शैली अपनाकर दर्शन एवं आचार के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किये। उनकी दृष्टि सहिष्णु व उदार थी। अन्य धर्मों के प्रति भी उनके मन में आदर एवं सम्मान था। उनका कहना था कि सभी सम्प्रदाय एवं मत मानव के कल्याण के लिए होने चाहिये। अतः किसी भी धर्म या मत के पालन में मनुष्य को रोक-टोक नहीं होनी चाहिए। आचार्य
प्राकृत रत्नाकर 069