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समय जन-भाषा के रूप में प्रसिद्ध थी और वे जन-साधारण तक अपने चिन्तन को पहुँचाना चाहते थे। इसके अतिरिक्त षट्खण्डागम्, कषायपाहुड जैसे आर्ष ग्रन्थ प्राकृत में ही निबद्ध होने से प्राकृत की दीर्घकालीन प्राचीन परम्परा भी उन्हें प्राप्त थी। अतएव उन्होंने अपने प्रायः सभी ग्रन्थों की रचना प्राकृत भाषा में ही की है। उनकी यह प्राकृत शौरसैनी प्राकृत है। इसी शौरसेनी प्राकृत में दिगम्बर परम्परा के आगम ग्रन्थों के अलावा अनेक उत्तरवर्ती आचार्यो ने भी अपने ग्रन्थ रचे हैं। इसमें सन्देह नहीं कि प्राकृत साहित्य के निर्माताओं में आचार्य कुन्दकुन्द का सर्वाधिक उच्च एवं मूर्धन्य स्थान है। इन्होंने जितना प्राकृत वाङ्मय रचा है उतना अन्य मनीषी ने नहीं लिखा। कहा जाता है कि कुन्दकुन्द ने 84 पाहुड़ों (प्राभृतों, प्रकरण-ग्रन्थों) तथा आचार्य पुष्पदन्त भूतवली द्वारा रचित षट्खण्डागम आ ग्रन्थ की परिकर्म नामकी विशाल टीका की भी रचना की थी। पर आज वह सब ग्रन्थ-राशि उपलब्ध नहीं है । फिर भी उनके जो ग्रन्थ प्राप्त हैं उनसे जैन वाड्मय • ही नहीं, भारतीय वाङ्मय भी समृद्ध एवं दैदीप्यमान है। उनकी इन उपलब्ध कृतियों का यहाँ संक्षेप में परिचय दिया जाता है
1. प्रवचनसार - इसमें तीन अधिकार है । (1) ज्ञानाधिकार, (2) ज्ञेयाधिकार और (3) चारित्राधिकार । इन अधिकारों में विषय के वर्णन का अवगम उनके नामों से ही ज्ञात हो जाता है । अर्थात् पहले अधिकार में ज्ञान का, दूसरों में ज्ञेय का और तीसरे में चारित्र (साधु-चारित्र) का प्रतिपादन है। इस एक ग्रन्थ के अध्ययन से जैन तत्वज्ञान अच्छी तरह अवगत हो जाता है । इस पर दो व्याख्यायें उपलब्ध है- एक आचार्य अमृतचन्द्र की है और दूसरी आचार्य जयसेन की।
2. पंचास्तिकाय - इसमें दो श्रुतस्कन्ध अधिकार है- (1) षड्द्रव्य - पंचास्तिकाय, और (2) नवपदार्थ। इनमें विषय का वर्णन उनके नामों से स्पष्ट है। इस पर भी उक्त दोनों आचार्यो की संस्कृत में टीकाएँ हैं और दोनों मूलकों स्पष्ट करती है। 3.समयसार- इसमें दस अधिकार हैं 1. जीवाजीवाधिकार, 2. कर्त्ताकर्माधिकार, 3. पुण्यपापाधिकार, 4. आस्स्रवाधिकार 5. संवराधिकार, 6. निर्जराधिकार, 7. बन्धाधिकार, 8. दीक्षाधिकार 9. सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार, 10. स्याद्वादाधिकार ।
प्राकृत रत्नाकर 067