________________
पंचास्तिकाय आदि महान् ग्रन्थों की रचना की थीं। नन्दिसंघ की पट्टावली में आचार्य कुन्दकुन्द के गुरु का नाम जिनचन्द्र लिखा हुआ मिलता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने गमकगुरु के रूप में श्रुतकेवली भद्रबाहु का स्मरण करते हुए लिखा
सदवियारो हुओ भासासुत्तेसु चं जिणे कहियं। तो तह कहियं णायं सीसेण य भद्बाहुस्स ॥ वारसअंगवियाणं चउदसपुव्वगं विउलवित्थरणं। सुयणाणी भद्यबाहु गमयगुरु भयवओ जयओ ॥
बोधबाहुड, गा 61, 62 अर्थात् जिनेन्द्र भगवान् महावीर ने अर्थ रूप से जो कहा है वह भाषासूत्रों में शब्द-विकास को प्राप्त हुआ है अनेक प्रकार से गूंथा गया है। भद्रबाहु के मुझ शिष्य ने उसको उसी रूप से जाना है और कथन किया है। बारह अंगों और चौदह पूर्वो के वेत्ता गमकगुरु भगवान् श्रुतज्ञानी, श्रुतकवेली भद्रबाहु जयवन्त हों। केवल बोधपाहुड में ही समयसार तथा नियमानुसार के मंगलाचरण में भी उन्होंने श्रुतकेकवली का स्मरण किया है।
आचार्य कुन्दकुन्द के समय पर अनेक विद्वानों ने ऊहापोहपूर्वक विस्तृत विचार किया है। स्वर्गीय पण्डित जुगलकिशोर 'मुख्तार' मुख्तार ने अनेक प्रमाणों से विक्रम की पहली शताब्दी इनका समय निर्धारित किया है। मूल संघ की उपलब्ध प्राकृत पट्टावली के अनुसार भी यही समय विक्रम सम्वत् 49 माना गया है। डॉ. ए. एन. उपाध्ये ने सभी के मान्य समयों पर गहरा ऊहापोह करके ईसवी सन् का प्रारम्भ उनका अस्तित्व समय निर्णीत किया है। उनके जन्म को 2 हजार वर्ष होने पर अभी सन् 2000 में सारे देश में पूज्य आचार्य विद्यानन्द जी महाराज की सत्प्रेरणा से आचार्य कुन्दकुन्द द्विसहस्त्रादि वर्ष मनाया गया है। इन दो हजार वर्षों में आचार्य कुन्दकुन्द के शौरसेनी प्राकृत ग्रन्थों ने परवर्ती साहित्य को बहुत प्रभावित किया है।
___ आचार्य कुन्दकुन्द ने अपनी ग्रन्थ-रचना के लिए प्राकृत , पाली और संस्कृत इन तीन प्राचीन भारतीय भाषाओं में से प्राकृत को चुना, क्योंकि प्राकृत उस 660 प्राकृत रत्नाकर