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1550 ग्रन्थाग्र है। इसकी रचना नाइलकुल के गुणपाल मुनि ने की है। लेखक की अन्य रचना जम्बूचरियं भी मिलती है । इसिदत्ताचरियं ( ऋषिदत्ताचरित्र) की प्राचीन प्रति सं. 1264 या 1288 की मिलती है। इससे यह उक्त काल के पूर्व की रचना है । गुणपाल मुनि का समय भी 9-10वीं शताब्दी के बीच अनुमान किया गया है। 65. कंसवहो
कंसवध के रचयिता रामपाणिवाद मलावर प्रदेश के निवासी थे। इनका समय ई. सन् 1707-75 तक माना गया है। प्रस्तुत खंडकाव्य में 4 सर्ग एवं 233 पद्य हैं। इस काव्य की कथावस्तु का आधार श्रीमद् भागवत है। अक्रूरजी गोकुल आकर श्रीकृष्ण एवं बलराम को कंस के छल के बारे में बताते हैं कि धनुष यज्ञ के बहाने कंस ने उन्हें मारने का षड्यन्त्र रचा है । श्रीकृष्ण निमंत्रण स्वीकार कर बलराम सहित अक्रूर के साथ मथुरा जाते हैं। वहाँ धनुषशाला में जाकर धनुष को तोड़ देते हैं। आगे कुवलयापीड हाथी एवं अम्बष्ट को पछाड़ने, चाणूर एवं मुष्टिक मल्ल को मल्लयुद्ध में हराने की घटना वर्णित हुई है । अन्त में क्रुद्ध कंस स्वयं तलवार लेकर उनके सामने उपस्थित होता है । श्रीकृष्ण तत्क्षण ही कंस का वध कर देते हैं। समस्त कथानक इसी घटना के इर्द-गिर्द घूमता है। इस संक्षिप्त कथानक को लेकर कवि ने इस खंडकाव्य की रचना की है। श्री कृष्ण द्वारा कंस का वध करने का प्रसंग इस काव्य की केन्द्रिय घटना है । अतः इसी घटना के आधार पर काव्य का नाम कंसवहो रखा गया है। यह एक सरस काव्य है, जिसमें लोकतत्त्व, वीरता एवं प्रेमतत्त्व का निरूपण एक साथ हुआ है। इसकी भाषा महाराष्ट्री प्राकृत है, कहीं-कहीं शौरसेनी का भी प्रयोग हुआ है। मथुरानगरी, प्रभात, कंस वध, गोपियों का विलाप, बलराम का अन्तर्द्वन्द्व, कृष्ण की बाल लीला आदि के वर्णनकाव्यात्मक हैं । बलराम के अन्तर्द्वन्द्व का मनोवैज्ञानिक चित्रण दृष्टव्य है
पट्टए चावमहं ति कोदुअं णिवट्टए वंचण - साहणं ति तं । दुहा वले भादर भाव-बंधणं मह त्ति तं जंपइ रोहिणी - सुओ ॥ .. (गा. 27) अर्थात् - रोहिणी पुत्र (बलराम) कहते हैं, हे भाई! मुझे दो प्रकार का भाव उत्पन्न हो रहा है। एक ओर धनुष यज्ञ देखने का कौतूहल उत्पन्न हो रहा है, . तो दूसरी ओर वह धनुष यज्ञ कपट का साधन है। इस कारण मन निवृत्त हो रहा है।
46 0 प्राकृत रत्नाकर