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75. कल्पावतंसिका(कप्पवडंसिया) __ शाब्दिक दृष्टि से कल्पावतंसिका का अर्थ है - विमानवासी देव। इस अर्धमागधी के उपांग-ग्रन्थ में दस अध्ययन हैं, जिनमें श्रेणिक राजा के दस पौत्रों पउम, महापउम, भद्द, सुभद्द, पउमभद्द, पउमसेन, पउमगुल्म, नलिनीगुल्म, आणंद और नन्दन के भगवान् महावीर के पास श्रमण दीक्षा ग्रहण करने, देवलोक जाने, अन्ततः महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्धत्व प्राप्त करने के वर्णन हैं । इस उपांग में व्रताचरण द्वारा जीवन-शोधन की प्रक्रिया पर प्रकाश डालते हुए यह स्पष्ट करने का प्रयत्न किया गया है कि जिनके पिता अपने कषायों के कारण नरक गति को प्राप्त हुए, उन्हीं के पुत्र रत्नत्रय रूप धर्म की सम्यक् आराधना करने के कारण देवलोक में गये। कर्म सिद्धान्त की सुन्दर व्याख्या करता हुआ यह उपांग मनुष्य के उत्थान एवं पतन का कारण कर्म को ही स्वीकार करता है। 76.कल्पिका(कप्पिया)।
इस अर्धमागधी उपांग में 10 अध्ययन हैं। प्राचीन मगध का इतिहास जानने के लिए यह उपांग अत्यन्त उपयोगी है। पहले अध्ययन में कुणिक अजातशत्रु का जन्म, पिता श्रेणिक के साथ मन मुटाव, पिता को कारागार में बन्द कर कुणिक का स्वयं राज्य सिंहासन पर बैठना, श्रेणिक का आत्म-हत्या को कर लेना, कुणिक का वैजोली के गणराजा चेटक के साथ युद्ध करने का वर्णन है। इसमें कुणिक का विस्तृत परिचय प्राप्त होता है। 77.कविदर्पण ___ नन्दिषेणकृत ‘अजितशान्तिस्तव' के ऊपर लिखी जिनप्रभ की टीका में कविदर्पण का उल्लेख प्राप्त होता है। इस रचना के मूल कर्ता का नाम ज्ञात नहीं है। विद्वानों ने इसका रचनाकाल लगभग 13वीं शताब्दी माना है। इसमें छ: उपदेश हैं। प्रथम उद्देश में मात्रा, वर्ण तथा दोनों के मिश्रण से छंद के तीन प्रकार बताये हैं। द्वितीय उद्देश में 11 प्रकार के मात्रा छंदों का वर्णन है। तृतीय उद्देश में सम, अर्धसम और विशम वर्णिक छंदों का तथा चतुर्थ उद्देश में समचतुष्पदी, अर्धसमचतुष्पदी तथा विशमचतुष्पदी का वर्णन है। पाँचवें उद्देश में उभय छंदों का तथा छठे उद्देश में प्रस्तार, नष्ट, उद्दिष्ट आदि प्रत्ययों का वर्णन है। इस ग्रन्थ में
540 प्राकृत रत्नाकर