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नाम सुखबोधा रखा गया है। इसमें उदाहरणरूप अनेक प्राकृत कथानक हैं। वृत्ति के अन्त की प्रशस्ति में उल्लेख है कि नेमिचन्द्राचार्य बृहद्गच्छीय उद्योतनाचार्य के शिष्य उपाध्याय आम्रदेव के शिष्य हैं । इनके गुरु-भ्राता का नाम मुनिचन्द्रसूरि है, जिनकी प्रेकरणा ही प्रस्तुत वृत्ति की रचना का मुख्य कारण है। वृत्ति-रचना का स्थान अणहिलपाटन नगर में सेठ दोहडि का घर है। इसका ग्रन्थमान 12000 नोक-प्रमाण है। 50. उद्द्योतनसूरि ___ कुवलयमालाकहा के रचयिता का नाम दाक्षिण्यचिह्न उद्योतनसूरि है। कथा के अन्त में लेखक ने एक 27 पद्यों की प्रशस्ति दी है जिसमें गुरुपरम्परा, रचनासमय
और स्थान का निर्देश किया गया है। इससे अनेक महत्त्वपूर्ण बातों का पता चलता है। तदनुसार उत्तरापथ में चन्द्रभागा नदी के तट पर पव्वइया नामक नगरी में तोरमाण या तोरराय नामक राजा राज्य करता था। इसके गुरु गुप्तवंशीय आचार्य हरिगुप्त के शिष्य महाकवि देवगुप्त थे। उनके शिष्य शिवचन्द्रगणि महत्तर भिल्लमाल के निवासी थे, उनके शिष्य यक्षदत्त थे। इनके णाग, बिंद (वृन्द), मम्मड, दुग्ग, अग्निशर्मा, बडेसर (बटेश्वर) आदि अनेक शिष्य थे, जिन्होंने देवमन्दिर का निर्माण कराकर गुर्जर देश को रमणीय बनाया था। इन शिष्यों में से एक का नाम तत्त्वाचार्य था। ये ही तत्त्वाचार्य कुवलयमाला के कर्ता उद्योतनसूरि के गुरु थे। उद्योतनसूरि को वीरभद्रसूरि ने सिद्धान्त और हरिभद्रसूरि ने युक्तिशास्त्र की शिक्षा दी थी। इस ग्रन्थ को उन्होंने जावालिपुर (जालोर) के भ. ऋषभदेव के मंदिर में रहकर चैत्र कृष्ण चतुर्दशी के अपराह्न में, जब कि शक सं. 700 के समाप्त होने में एक ही दिन शेष था, पूर्ण किया था। उस समय नरहस्ति श्रीवत्सराज यहाँ राज्य करता था। यह समय विक्रम सं. 835 आता है और ईस्वी सन् 779 की मार्च 21 को समाप्त हुआ समझना चाहिए। 51. उक्तिव्यक्तिप्रकरण ___प्राचीन कोश-ग्रन्थों की परम्परा में पं. दामोदर शास्त्री ने 12वीं शताब्दी में उक्तिव्यक्तिप्रकरण की रचना की, जिसका दूसरा नाम प्रयोग-प्रकाश है। इस कोश-ग्रन्थ में इस बात को अत्यंत सरल ढंग से समझाया गया है कि किस प्रकार
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