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सरस्वती और वादिगोकुलषण्ड के नाम से सम्मानित किये जाते थे। उपदेशरत्नाकर विक्रम संवत् 1476 (ईसी सन् 1319) के आसपास की रचना है जो लेखक के स्वोपज्ञविवरण से अलंकृत है। यह ग्रंथ तीन तटों में विभक्त हैं प्रथम, मध्यम आर अपर। प्रथम दो भागों में चार-चार अंश और फिर प्रत्येक अंश में तरंग हैं। अन्तिम तट के आठ विभाग हैं और इनमें प्रथम चार को तरंग कहा गया है। अनेक दृष्टान्तों द्वारा यहाँ धर्म का प्ररूपण किया है। अनेक आचार्यो, श्रेष्ठियों और मंत्रियों आदि के संक्षिप्त कथानक विवरण में दिये हैं। महाभारत, महानिशीथ, व्यवहारभाष्य, उत्तराध्ययनवृत्ति, पंचाशक, धनपाल की ऋषभपंचाशिका आदि कितने ही ग्रंथों के उद्धरण यहाँ दिये गये हैं। सर्प, आमोषक, चोर, ठग, वणिक, वन्ध्या, गाय, नट, वेणु, सखा, बन्धु, पिता-माता और कल्पतरू इन बारह दृष्टान्तों द्वारा योग्य अयोग्य गुरु का स्वरूप बताया है। गुरूओं के निबोली, प्रियालु, नारियल और केले की भाँति चार भेद किये हैं। जैसे जल, फल, छाया और तीर्थ से विरहित पर्वत आश्रित जनों को कष्टप्रद होते हैं, उसी प्रकार रुत, चारित्र, उपदेश
और अतिशय से रहित गुरु अपने शिष्यों के लिए क्लेशदायी होते हैं। इस ग्रन्थ के प्रथम दो भाग स्वोपज्ञवृत्ति सहित देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार ग्रंथमाला में सन् 1914 में बंबई से प्रकाशित है। ग्रंथ की संपूर्ण आवृत्ति चन्दनसागर जी के गुजराती अनुवाद एवं प्रोफेसर हीरालाल कापड़िया की प्रस्तावना सहित जैन पुस्तक प्रचार संस्था द्वारा वि.स. 2005 में प्रकाशित है।
57. उपाध्ये, ए. एन.
प्रोफेसर ए. एन. उपाध्ये प्राकृत अपभ्रंश, संस्कृत के उच्च्कोटि के विद्वान् थे।सम्पादन-कला के आप मर्मज्ञ थे। प्राकृत के अनेक ग्रन्थों का आपने सम्पादनअनुवाद किया है। उनकी अंग्रेजी प्रस्तावनाएँ देश-विदेश में आज भी ज्ञान-कोश मानी जाती है। प्रो. उपाध्ये का जन्म 6 फरवरी 1906 को कर्नाटक के बेलगांव जिले के सदलगा गांव में हुआ था। कोल्हापुर आपका कार्यक्षेत्र रहा। 1930 में
आपने एम.ए. किया तथा 1939 ई. में बम्बई यूनिवर्सिटी से आपको डी.लिट. की उपाधि प्राप्त हुई। राजाराम कालेज, कोल्हापुर में वे अर्धमागधी के प्रोफेसर रहे 38 0 प्राकृत रत्नाकर