Book Title: Panchsangraha Part 06
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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( २३ ) और अल्पबहुत्व प्ररूपणा। यथाक्रम से गाथा ४४ से प्रत्येक प्ररूपणा का आशय स्पष्ट करना प्रारम्भ किया जिसकी समाप्ति गाथा ६० में हुई है।
तत्पश्चात् अनुभागबंधस्थानों के बंधक जीवों की प्ररूपणा एक स्थान प्रमाण, अन्तरस्थान, निरन्तरस्थान, कालप्रमाण, वृद्धि, यवमध्य, स्पर्शना, और अल्पबहुत्व इन आठ द्वारों के माध्यम से की है। यह निरूपण गाथा ६२ से लेकर गाथा ७० तक में पूर्ण हुआ है। ___ तदनन्तर स्थिति एवं रस बंध के निमित्तभूत अध्यवसायों का वर्णन करके उन्हें शुभ और अशुभ प्रकृतियों में घटित किया है। इसी प्रसंग में रसबंधाध्यवसायस्थानों की तीव्रता का स्पष्ट ज्ञान कराने के लिये अनुभागबंध में हेतुभूत अध्यवसायों की अनुकृष्टि किस स्थितिस्थान से प्रारम्भ की जाती है, का कथन किया है। - अनुकृष्टि के विचार का नियम सूत्र बतलाकर अपरावर्तमान अशुभ शुभ, परावर्तमान शुभ अशुभ, इन चार वर्गों में प्रकृतियों का वर्गीकरण करके प्रत्येक वर्गगत प्रकृतियों के नाम गिनाये हैं। फिर इन्हीं चारों वर्गगत प्रकृतियों की अनुकृष्टि का निरूपण किया एवं जिन प्रकृतियों के विषय में विशेष उल्लेखनीय है. उन तिर्यंचद्विक और नीचगोत्र तथा त्रसचतुष्क इन सात प्रकृतियों की अनुकृष्टि का वर्णन पृथक से किया है।
अनुकृष्टि का विवेचन करने के पश्चात् गाथा ६२ से १८ तक में पूर्वोक्त चार वर्गों में वर्गीकृत एवं तिर्यंचद्विक, नीचगोत्र, त्रसचतुष्क की अनुभागबंध सम्बन्धी तीव्रता-मंदता का निरूपण किया है और इसके साथ ही अनुभागबंध सम्बन्धी वर्णन भी समाप्त हो जाता है।
तदनन्तर स्थितिबंध का प्रारम्भ किया है। जिसकी प्ररूपणा के निम्नलिखित चार अधिकार बताये हैं
स्थितिस्थान प्ररूपणा, निषेक प्ररूपणा, अबाधा कंडक प्ररूपणा और अल्पबहुत्व प्ररूपणा । इनमें से स्थितिस्थान प्ररूपणा, निषेक प्ररूपणा