Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
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उद्देशक १ टिप्पण
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में व्याघात पैदा न हो तथा आत्मविराधना एवं संयमविराधना न हो। यदि यथाकृत उपकरण न मिले तो अनिवार्यता में अल्पपरिकर्म पात्र आदि ग्रहण कर भिक्षु स्वयं उसका परिकर्म करे ।
परिघट्टन बहुपरिकर्म वाला तथा संस्थापन अल्पपरिकर्म वाला कार्य है, इसलिए भिक्षु को गृहस्थ या अन्यतीर्थिक से कराना नहीं कल्पता। विषम को सम करना अपरिकर्म वाला कार्य है। इसलिए मुनि उसे स्वयं कर सकता है। शब्द विमर्श
१. परिघट्टन पात्र को भीतर, बाहर से निर्मोक करना, चारों तरफ से घर्षण करना ।
२. संस्थापन-मुंह आदि को व्यवस्थित करना । ' ३. जमावन ( समीकरण) - विषम को सम करना ।
दण्ड, लाठी आदि के संदर्भ में इनका अर्थ क्रमशः अवलेखन (घिसना), पार्श्वभाग को व्यवस्थित करना, मूलभाग, अग्रभाग एवं पर्व को ठीक करना एवं ऋजुकरण होता है।"
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४. दण्ड-तीन हाथ का डंडा । दो हाथ के दंड के लिए विदंड शब्द का प्रयोग मिलता है।"
५. लाठी- शरीरप्रमाण डंडा । चार अंगुल न्यून लाठी को विलठ्ठी कहा जाता है।"
६. अवलेखनिका-बड़, पीपल आदि की बारह अंगुल लम्बी, एक अंगुल चौड़ी लकड़ी, जो वर्षावास में पैर आदि से कीचड़ आदि का अपनयन करने में प्रयुक्त होती है यह ठोस, मसृण एवं निर्व्रण होनी चाहिए।*
१२. सूत्र ४१, ४२
प्रस्तुत सूत्रद्वयी के प्रथम सूत्र में पात्र के एक विग्गल (पैबन्द) लगाने का निषेध किया गया है। यह निषेध औत्सर्गिक है । भिक्षु निरर्थक - केवल पात्र की सौन्दर्य वृद्धि के लिए एक भी धिग्गल न लगाए। यदि पात्र अच्छा हो-धारणीय हो तो थिग्गल लगाना निषिद्ध है । यदि आवश्यक हो तो सजातीय एवं सुप्रतिलेख्य थिग्गल यतनापूर्वक लगाया जा सकता है।
१. निभा. गा. ६९४ - परिघट्टण णिम्मोयणं, तं पुण अंतो व होज्ज बहिं
वा ।
२. वही संठवणं मुकरणं।
३. वही-जमाणं विसमाण समकरणं ।
४. वही, गा. ७०६
५. वही, गा. ७०० - तिण्णि उ हत्थे डंडो, दोण्णि उ हत्थे विदंडओ होति ।
६. बड़ी, गा, ७०० लट्ठी आतप्यमाणा, विलठ्ठी चतुरंगुलेणूणा ।।
७. वही, गा. ७०९, ७१०
८. नि. हुंडी १/४२-चोखा पात्रा रे सरतो थीगड़ो देवै ।
निसीहज्झयणं
पात्र दुर्लभ हो, इस स्थिति में अनेक स्थानों पर खण्डित पात्र को टिकाऊ और उपयोगी बनाने के लिए अपवादस्वरूप तीन गिल भी लगाए जा सकते हैं पर इससे अधिक का निषेध है। शब्द विमर्श
१. तुडियं - यह देशीशब्द है, इसका अर्थ है- पैबन्द अथवा थिग्गल । इसे सामयिकसंज्ञा भी माना जा सकता है।
२. तङ्केति यह देशी धातु है। इसका अर्थ है पैबन्द लगाना।" १३. सूत्र ४३-४६
बंधन का अर्थ है - पात्र की गोलाई को धागे आदि से बांधकर, पात्र को मजबूत बनाना। उसके दो प्रकार हैं-अविधिबंध और विधिबंध । प्रस्तुत प्रसंग में भाष्यकार ने तत्कालीन प्रसिद्ध अनेकविध बंधनों का निरूपण किया है। उनमें स्वस्तिक बंध (व्यतिकलित बंध, अव्यतिकलित बंध) तथा स्तेन बंध को अविधि बन्ध तथा मुद्रिका और नौका संस्थान वाले बंधन को विधिबन्धन माना गया हैं। सामान्यतः जिस बन्धन की प्रतिलेखना सुकर हो तथा जिसे अल्प समय में आसानी से लगाया जा सके, उसे विधिबन्धन माना जा सकता हैं। यह निषेध औत्सर्गिक है।
सामान्यतः भिक्षु को बन्धन रहित पात्र ग्रहण करना चाहिए। १२ विना कारण अथवा केवल पात्र की सौन्दर्य वृद्धि के लिए एक भी बन्धन बांधना उचित नहीं । यदि प्राप्त पात्र दुर्बल हो और अन्य पात्र दुर्लभ हो तो अपेक्षा के अनुसार एक, दो या तीन बन्धन लगाए सकते हैं।" किन्तु अधिक बन्धनों वाला पात्र अपलक्षण हो जाता है अतः ऐसे पात्र को डेढ़ मास से अधिक न रखे। १४ प्रस्तुत संदर्भ में भाष्यकार ने पात्र की सुलक्षणता एवं अपलक्षणता तथा उससे होने वाले लाभ एवं अलाभ की भी विस्तृत चर्चा की है। १४. सूत्र ४७, ४८
पात्र के समान वस्त्र भी यथाकृत हों, अपरिकर्म हों तो भिक्षु के स्वाध्याय, ध्यान आदि संयमयोगों में व्याघात नहीं आता । कदाचित् वस्त्र दुर्लभ हो अथवा प्राप्त वस्त्र दुर्बल, हीनप्रमाण अथवा फटा हुआ हो तो भिक्षु उसके एक दो या तीन पैबन्द लगा सकता
"
९. निभा. भा. २, चू. पू. ५१डियं धिग्गलं देसीमासाए, सामधिगी वा एस पडिभासा ।
१०. वही राति लाए ति तं भवति ।
११. निभा. गा. ७३८
सोत्थियबंधो दुविधो, अविकलितो तेण बंधो चउरंसो । एसो तु अविधिबंधो, विधिबंधो मुद्दिणावा य ।।
१२. निभा. भा. २, चू. पृ. ५४-उस्सग्गेण ताव अबंधणं पात्रं घेत्तव्वं । १३. वही - दुब्बल दुल्लभपादे, बंधेणेगेण बंधे वा........ ।
१४. वही, पृ. ५५ केवलमतिरेगबंधणमलक्खणं दिवङ्कातो परं पण धरेयव्वं । एगबन्धेण वि अलक्खणं दिवड्डातो परं न धरेयव्वं । १५. वही. गा. ७५२-७५६