Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
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आमुख
पूर्ववर्ती उद्देशक के समान प्रस्तुत उद्देशक में भी उन विषयों का संग्रहण हुआ है, जिनका सम्बन्ध लघुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त से है। इस उद्देशक में मुख्यतः चार विषयों का प्रायश्चित्त है
१. कुतूहल के कारण किए गए कार्य।
२. निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी के द्वारा अन्ययूथिक अथवा गृहस्थ से परस्पर एक-दूसरे के पैर, शरीर आदि का परिकर्म करवाना।
३. पिण्डैषणा विषयक स्खलनाएं। ४. श्रवणोत्सुकता से होने वाली प्रतिसेवनाएं।
प्रस्तुत आगम के बारहवें उद्देशक में लौकिक अनुकम्पा के कारण त्रसप्राणियों को विविध प्रकार के बन्धनों से बांधने एवं उन बन्धनों से बद्ध प्राणियों को छुड़ाने बन्धनमुक्त करने का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। प्रस्तुत उद्देशक में कुतूहलवश प्राणियों को बद्ध, मुक्त करने का भी वही प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। इसी प्रकार इसी आगम के सातवें उद्देशक में विविध प्रकार की मालाओं, विविध धातुओं, नानाविध आभरणों एवं बहुमूल्य वस्त्रों के निर्माण, धारण एवं परिभोग का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। वहां इन कुप्रवृत्तियों का हेतु है-मातृग्राम के साथ मैथुन-सेवन का संकल्प । अतः वहां इसका प्रायश्चित्त है गुरुचातुर्मासिक। प्रस्तुत उद्देशक में कुतूहलवश विविध मालाओं, धातुओं, आभरणों एवं वस्त्रों के निर्माण आदि का प्रायश्चित्त लघुचातुर्मासिक
प्रस्तुत आगम में पादपरिकर्म, कायपरिकर्म, व्रणपरिकर्म, गंडादिपरिकर्म, कृमि तथा मैल आदि का निष्कासन, नखशिखा एवं दीर्घरोमराजि का कर्त्तन-संस्थापन आदि से सम्बद्ध आलापकों का अनेक उद्देशकों में भिन्न-भिन्न हेतुओं के साथ उल्लेख हुआ है तथा उन-उन हेतुओं के आधार पर उनका उद्घातिक अथवा अनुद्घातिक प्रायश्चित्त बतलाया गया है। प्रस्तुत उद्देशक में इस चौवनसूत्रीय आलापक का दो बार उल्लेख हुआ है। निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी स्वयं स्वयं के शरीर का परिकर्म करती है, परस्पर एक दूसरे के शरीर का परिकर्म करते हैं, उससे भी अधिक दोषावह है-अन्ययूथिक अथवा गृहस्थ के द्वारा एक दूसरे के शरीर का परिकर्म करवाना। अन्यमतावलम्बी संन्यासी आदि तथा सामान्य गृहस्थों को सावध योगों का सर्वथा प्रत्याख्यान नहीं होता। वे सुतप्त लोहपिण्ड के समान समन्ततः जीवोपघाती होते हैं, निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी की शारीरिक परिचर्या या परिकर्म के पश्चात् पश्चात्कर्म कर सकते हैं। शंका एवं सन्देह के कारण निर्ग्रन्थ एवं निर्ग्रन्थ-प्रवचन का अवर्णवाद कर सकते हैं। अतः इनका प्रायश्चित्त है लघुचातुर्मासिक।
प्रस्तुत उद्देशक में मालापहृत, उद्भिन्न एवं निक्षिप्त-पिण्डैषणा के इन तीन दोषों का तथा अत्युष्ण अशन आदि एवं अपरिणत पानक को ग्रहण करने का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है।
आयारचूला में स्तम्भ, मचान, माल आदि अन्तरिक्षजात स्थानों पर उपनिक्षिप्त एवं कोष्ठिका आदि में रखे हुए अशन, पान, खाद्य एवं स्वाद्य को टेढ़ा होकर, झुककर, निकाल कर दिया जाए तो उसे मालापहृत जानकर ग्रहण करने का निषेध किया है। वहां कहा गया कि अधर स्थानों पर स्थित (ऊर्ध्व मालापहृत) भिक्षा को देने के लिए गृहस्थ पीठ, फलक, निश्रेणी आदि
स्थानों पर चढ़ता है। उस समय वह स्खलित हो जाए, गिर जाए तो उसके हाथ, पैर, बाह, ऊरु आदि अंग भंग हो सकते हैं, १. आचू. १/८७,८९