Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
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टिप्पण
१. सूत्र १,२
प्रस्तुत आगम के बारहवें उद्देशक में कारुण्य की प्रतिज्ञा से किसी त्रस प्राणी को घास, मूंज, काठ आदि के बन्धन से बांधने तथा बंधे हुए प्राणी को खोलने का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। प्रस्तुत उद्देशक में कुतूहलवृत्ति से त्रस प्राणियों को बांधने एवं खोलने का प्रायश्चित्त बतलाया गया है। कुतूहलवृत्ति चंचलता का प्रतीक है। इससे समिति एवं गुप्ति में दोष लगता है। बंधन से तड़फड़ाते प्राणी
और खोलने के बाद मुक्त हुए बछड़े आदि प्राणी भिक्षु को चोट पहुंचा सकते हैं, अन्य प्राणियों की घात कर सकते हैं। अतः भिक्षु के लिए त्रस प्राणियों को बांधने एवं खोलने का निषेध है। २. सूत्र ३-१४
प्रस्तुत आगम के सातवें उद्देशक में स्त्री के साथ अब्रह्म के संकल्प से विविध प्रकार की मालाओं के निर्माण करने, धारण करने एवं उन्हें शरीर पर धारण करने का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है तथा इसी प्रकार विविध धातुओं, विविध आभूषणों तथा विविध प्रकार के वस्त्रों के निर्माण, धारण एवं परिभोग का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। प्रस्तुत उद्देशक में कुतूहल वृत्ति से उन्हीं मालाओं, धातुओं, आभूषणों एवं वस्त्रों के निर्माण, धारण एवं परिभोग का प्रायश्चित्त बतलाया गया है। कामवासना से की जाने वाली प्रवृत्तियां जघन्यतर मनोवृत्ति की परिचायक होती हैं तथा अधिक दोष की हेतु बनती हैं। अतः वहां इसका प्रायश्चित्त गुरु चातुर्मासिक बताया गया है। यहां उनकी पृष्ठभूमि में कुतूहलवृत्ति है। अतः इनका प्रायश्चित्त लघुचातुर्मासिक बताया गया है। ३. सूत्र १५-१२२
भिक्षु रोगप्रतिकर्म, मार्गश्रान्ति का निवारण आदि प्रयोजनों से यतनापूर्वक पादपरिकर्म, कायपरिकर्म, व्रणप्रतिकर्म आदि कार्य स्वयं कर सकता है। अपेक्षा होने पर साधर्मिक भिक्षुओं के वैयावृत्य के रूप में पारस्परिक पादपरिकर्म भी विधिसम्मत है। किन्तु गृहस्थ अथवा अन्यतीर्थिक से स्वयं का वैयावृत्य करवाना अनुज्ञात नहीं
प्रस्तुत उद्देशक में पादपरिकर्म से लेकर शीर्षद्वारिका पर्यन्त सम्पूर्ण आलापक का दो रूपों में प्ररूपण हुआ है
• निर्ग्रन्थी गृहस्थ अथवा अन्यतीर्थिक से निर्ग्रन्थ के पादप्रमार्जन आदि कार्य करवाती है।
.निर्ग्रन्थ गृहस्थ अथवा अन्यतीर्थिक से निर्ग्रन्थी के पादप्रमार्जन आदि कार्य करवाता है।
इन दोनों ही स्थितियों में मिथ्यात्व, जनापवाद, स्पर्श से भावात्मक संबंध एवं रागोत्पत्ति, स्वयं एवं पर के मोह की उदीरणा, सूत्रार्थ-हानि, संपातिम जीवों की हिंसा, पश्चात्कर्म, बाकुशत्व आदि अनेक दोष संभव हैं। भाष्यकार के अनुसार यदि निर्ग्रन्थ के पादप्रमार्जन आदि कार्य निर्ग्रन्थी करे तो गुरुचातुर्मासिक, गृहस्थस्त्रियां करे तो गुरुचातुर्मासिक तथा गृहस्थपुरुष करे तो लघुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। इसी भाष्यगाथा के आधार पर यह भी ज्ञातव्य है कि निर्ग्रन्थी के पादप्रमार्जन आदि कार्य यदि निर्ग्रन्थ, अन्यतीर्थिकपुरुष अथवा गृहस्थ करे तो गुरुचातुर्मासिक एवं अन्यतीर्थिकस्त्रियां अथवा गृहस्थस्त्रियां करे तो लघुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। निशीथचूर्णि के अनुसार सामान्यतः निर्ग्रन्थी के उत्तरोष्ठ के रोम नहीं होते। अतः तत्सम्बन्धी सूत्र संभव नहीं है। अथवा किसी अलक्षणा स्त्री की अपेक्षा से यह सूत्र भी संभव है। ४. सूत्र १२३,१२४
जो व्रत, संयम आदि गुणों से समान हों अथवा जो दस प्रकार के स्थितकल्प, दो प्रकार के स्थापनाकल्प तथा उत्तरगुण कल्प में समान सामाचारी वाले होते हैं, वे सदृश कहलाते हैं।
दसविध स्थितकल्प-१. अचेलकता २. औद्देशिक ३. शय्यातरपिंड ४. राजपिंड ५. कृतिकर्म ६. व्रत ७. ज्येष्ठ ८. प्रतिक्रमण ९. मासकल्प और १०. पर्युषणाकल्प।
द्विविध स्थापनाकल्प-१. अकल्प स्थापना कल्प-अकल्पनीय
१. निसीह. १२/१,२ २. निभा. गा. ३९८१,३९८२ सचूर्णि ३. वही, गा. ५९२०-५९२४ ४. वही, गा. ५९१९
५. वही, भा. ४ चू.पृ. १८७-उत्तरोट्ठरोमसुत्तं ण संभवति, अलक्खणाए
वा संभवति। ६. वही, गा. ५९३२ ७. वही, गा. ५९३३