Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
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उद्देशक १७: टिप्पण
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निसीहज्झयणं
पान आदि को ग्रहण करने का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। नसैनी, पीढे आदि पर चढ़कर वस्तु उतारते हुए गृहस्थ गिर जाए अथवा उसके हाथ से बर्तन या वस्तु गिर जाए तो संयमविराधना, आत्मविराधना तथा भाजनविराधना संभव है। चूर्णिकार के अनुसार एक बौद्ध भिक्षु के लिए ऊपर से वस्तु उतारती हुई स्त्री को सर्प ने डस लिया और उसकी मृत्यु हो गई। इस प्रकार की घटनाओं से लोकनिन्दा, साधुओं के प्रति प्रद्वेष तथा भिक्षा के व्यवच्छेद आदि दोष भी उत्पन्न होते
आहार, उपधि और शय्या का ग्रहण न करना। २.शैक्षस्थापनाकल्प- अयोग्य स्त्री, पुरुष एवं नपुंसक को दीक्षित न करना।'
उत्तरगुणकल्प-उद्गम, उत्पादन एवं एषणा से विशुद्ध आहार आदि का ग्रहण, समिति, गुप्ति, भावना आदि का यथोक्त रूप में समान परिपालन आदि।
इन विविध मूलगुणों एवं उत्तरगुणों से समानधर्मा निर्ग्रन्थ एवं निर्ग्रन्थी साम्भोजिक कहलाते हैं। उन समानधर्मा साधुओं को साधु एवं साध्वियों को साध्वियां अपने साथ रहने का स्थान दे, उनके आने अथवा मिलने पर साधर्मिक वात्सल्य का परिचय दे। सौहार्द एवं साधर्मिक वात्सल्य से तीर्थ की प्रभावना होती है।
साधर्मिक साधु-साध्वियों के उपाश्रय में स्थान होने पर भी यदि साधु अथवा साध्वी उपाश्रय से बाहर प्रवास करते हैं और उन्हें श्वापद, स्तेन, प्रत्यनीक आदि के उपद्रव से उपद्रत होना पड़े तो उन बहिर्निवासी साधु अथवा साध्वी को जो दोष लगते हैं, उन सबका प्रायश्चित्त स्थान न देने वाले को प्राप्त होता है।' ५.सूत्र १२५,१२६
मालापहृत उद्गम का तेरहवां दोष हैं। साधु के लिए माल-मंच आदि से जो भोजन आदि लाया जाता है, वह मालापहृत होता हैं।' निशीथभाष्य के अनुसार मालापहृत भिक्षा के तीन प्रकार होते
१. ऊर्ध्वमालापहत-द्वितीय मंजिल, छींके आदि जहां से वस्तु का उतारने के लिए नसैनी, फलक, पीठ आदि की आवश्यकता हो।।
२. अधोमालापहृत-तलघर आदि में उतर कर जो वस्तु लाई जाए।
३. उभयतः मालापहृत-बहुत ऊंचे अथवा बहुत गहरे कोठे आदि में रखी हुई वस्तु, जिसे निकालने के लिए बहुत ऊंचा होना अथवा झुकना पड़े।
आयारचूला तथा दसवेआलियं में साधु के लिए मालापहृत भिक्षा का निषेध किया गया है।
प्रस्तुत सूत्रद्वयी में मालापहृत तथा कोष्ठिकागुप्त अशन, १. निभा. ४ चू.पृ. १८८-ठवणाकप्पो दुविहो-अकप्पठवणाकप्पो
सेहठवणाकप्पो य। २. वही, गा. ५९३५ ३. वही, गा. ५९४० ४. वही, गा. ५९३९
पि.नि. म. वृ. ३५-मालात्मंचादेरपहृतं-साध्वर्थमानीतं यद्भक्तादि
तन्मालापहृतम्। ६. निभा. गा. ५९४९ सचूर्णि। ७. आचू. १/८७-८९ ८. दसवे. ५/१/६७-६९ ९. निभा. गा. ५९५०, ५९५१ सचूर्णि।
शब्द विमर्श
१. कोट्ठिया-पुरुष-प्रमाण अथवा उससे कुछ हीन-अधिक प्रमाण वाला मिट्टी से बना कोठा, जिसमें खाद्य वस्तुएं रखी जाती थीं।
२. उक्कुज्जिय-ऊपर होकर। ३. अवकुज्जिय-ऊपर से तिरछा होकर।१२
४. ओहरिय-पीठिका आदि पर चढ़ कर उतारकर । ६. सूत्र १२७
उद्गम का एक दोष है उद्भिन्न । उसके दो प्रकार हैं
पिहित-उद्भिन्न-चपड़ी, चर्म अथवा मिट्टी के लेप से बंद पात्र का मुंह खोलना।
कपाट-उद्भिन्न-बन्द किवाड़ को खोलना।।
बर्तन आदि पर ढक्कन लगाकर, वस्त्र, चर्म अथवा मिट्टी से उपलिप्त कर पूरी तरह बन्द की हुई वस्तु को निकालने में जीवविराधना की संभावना रहती है। साधु को देने के निमित्त मिट्टी के लेप को उतारे और देने के बाद पुनः लेप लगाए, तब पृथिवीकाय, अप्काय एवं अग्निकाय के जीवों की विराधना होती है। किवाड़ को तोड़ कर, ताला तोड़कर अथवा चूलिया उतार कर साधु को भिक्षा दी जाए, तब भी जीवविराधना, गृहस्थों में अप्रीति अथवा अप्रतीति आदि दोष संभव हैं। अतः 'मृत्तिकोपलिप्त' पद से उपलक्षण से सभी प्रकार की पिहित-उद्भिन्न भिक्षा का निषेध ज्ञातव्य है।५ आयारचूला तथा दसवेआलियं७ १०. वही, भा. ४ चू.पृ. १९२-पुरिसप्पमाणा हीणाधिया वा
चिक्खल्लमती कोहिया भवति। ११. वही-उट्टिया उवरिहुत्तिकरणं । १२. वही-उड्डाए तिरियहुत्तिकरणं। १३. वही-पेढियमादिसु आरुभिउं ओआरेति । १४. वही, पृ. १९२-उब्भिण्णं दुविधं-पिहुभिण्णं कवाडुब्भिण्णं
१५. वही-साहुणिमित्तं उब्भिण्णे कयविक्कतेसु अधिकरणं कवाड
पिहितुभिण्णे कुंचियवेधे तालए वा आवत्तणपेढियाए वा
तसमादिविराहणा। १६. आचू. १/९०,९१ १७. दसवे. ५/१/४५,४६