Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
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टिप्पण
१. सूत्र १-५
प्रस्तुत आगम के पूर्ववर्ती उन्नीस उद्देशकों में चतुर्विध प्रायश्चित्त । का कथन हुआ है
१. उद्घातिक मासिक' २. अनुद्घातिक मासिकर ३. उद्घातिक चातुर्मासिक ४. अनुद्घातिक चातुर्मासिक।
प्रस्तुत उद्देशक में उद्घातिक एवं अनुद्घातिक प्रायश्चित्त का उल्लेख नहीं हुआ है। इसमें मुख्यतः मासिक, द्वैमासिक आदि छह परिहारस्थानों का उल्लेख हुआ है।
प्रस्तुत आलापक में एक परिहारस्थान की एक बार प्रतिसेवना कर आलोचना करने के प्रायश्चित्तदान का निरूपण है। आलोचक की मनःस्थिति के दो प्रकार होते हैं
१. मायारहित और २. मायासहित।
यदि आलोचक अपनी आत्मा को निःशल्य बनाना एवं अतिचार-पंक की शोधि करना चाहता है, पूर्ण ऋजुता के साथ गुरु के समक्ष आलोचना करता है तो उसे उसके अतिचार के अनुरूप मासिक, द्वैमासिक यावत् पाण्मासिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। यदि वह कपटपूर्ण आलोचना करता है तथा आलोचना सुनने वाले गुरु को उसकी माया ज्ञात हो जाती है तो उसे मायाहेतुक एक मास का प्रायश्चित्त अधिक मिलता है अर्थात् एकमासिक अतिचार का प्रतिसेवन करने से मायापूर्वक आलोचना करने वाले को द्वैमासिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। निशीथचूर्णिकार के अनुसार यह मायाहेतुक प्रायश्चित्त गुरुमास दिया जाता है।
आलोचनार्ह आचार्य के दो प्रकार हैं
१. आगम व्यवहारी-केवलज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चतुर्दशपूर्वी, अभिन्न दसपूर्वी और नौपूर्वी । ये अपने ज्ञानातिशय से । आलोचक की ऋजुता अथवा माया को जान लेते हैं। यदि आलोचक । १. उद्दे. २-५ २. उद्दे.१ ३. उद्दे.१२-१९
उद्दे. ६-११ निभा. भा. ४ चू.पृ. २७१-जो पुण पलिकुंचियं आलोएइ तस्स जं
दिज्जति पलिउंचणमासो य मायाणिप्फण्णो गुरुगो दिज्जति । ६. वही, पृ. ३०३-आगमववहारी सो छव्विहो इमो-केवलणाणी
ओहिणाणी मणपज्जवनाणी चोद्दसपुठवी अभिण्णदसपुव्वी
आलोचना के समय अतिचारों को भूल जाता है तो वे उसे स्मृति दिला देते हैं और उसके सम्यक्तया स्वीकार करने पर उसे प्रायश्चित्त प्रदान करते हैं।
२. श्रुतव्यवहारी छेदसूत्रों के ज्ञाता आचार्य श्रुतव्यवहारी होते हैं। वे परोक्षज्ञानी होने से प्रत्यक्षतः आलोचक के भाव नहीं जानते । वे तीन बार आलोचना करवाते हैं। तीनों बार अतिचार का कथन करते समय वे आलोचक के आकार, स्वर एवं वाणी के द्वारा उसके भावों को जान लेते हैं। यदि उन्हें आकार आदि से उसका भाव मायापूर्ण लगता है तो उसे ऋजुतापूर्वक निःशल्य होने की प्रेरणा देते हैं। प्रेरणा देने पर भी वह ऋजुतापूर्वक आलोचना नहीं करता तो मायाशल्य के निवारण हेतु एक गुरुमास प्रायश्चित्त अधिक दे दिया जाता है।
प्रस्तुत आलापक के अन्त में प्रयुक्त 'तेण परं' वाक्यांश का अर्थ है-उससे आगे अर्थात् पाञ्चमासिक से अधिक प्रतिसेवना करने वाले को। यदि किसी ने षाण्मासिक प्रायश्चित्त-योग्य अतिचार का प्रतिसेवन किया तो वह चाहे मायापूर्वक आलोचना करे अथवा ऋजुतापूर्वक, उसे षाण्मासिक प्रायश्चित्त ही प्राप्त होता है। यह जीतकल्प है कि जिस तीर्थंकर के शासन में उत्कृष्टतः जितना तप होता है, उतना ही उत्कृष्ट प्रायश्चित्त दिया जा सकता है। श्रमण भगवान महावीर की उत्कृष्ट तपोभूमि छह मास है। अतः उनके शासनकाल में उत्कृष्टतः उतना ही तप किया जाता है और उतना ही तपःप्रायश्चित्त दिया जाता है। २. सूत्र ६-१०
किसी ने तीन, चार, पांच बार मासिक परिहारस्थान की प्रतिसेवना कर उन सबकी एक साथ आलोचना की, उसे एकमासिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है और किसी ने एक बार मासिक परिहारस्थान
णवपुव्वी य। ७. वही गा. ६२९४ ८. वही, गा. ६३९५ (सचूर्णि) ९. वही, भा. ४ चू.पृ. ३०४,३०५ । १०. वही, पृ. ३०७-जम्हा जियकप्पो इमो। जस्स तित्थकरस्स जं
उक्कोसं तवकरणं तस्स तित्थे तमेव उक्कोसं पच्छित्तदाणं सेससाधूणं भवति।
साना,