Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
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उद्देशक २० : टिप्पण
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निसीहज्झयणं
२. बहुशः प्रतिसेवना सूत्र ३. सकल-प्रतिसेवना संयोग-सूत्र ४. बहुशः प्रतिसेवना-संयोग-सूत्र ५. सातिरेक-सूत्र ६. बहुशः सातिरेक-सूत्र ७. सातिरेक-संयोग-सूत्र ८. बहुशः सातिरेक-संयोग-सूत्र ९. सकल सातिरेक-संयोग-सूत्र १०. बहुशः बहुशः सातिरेक-संयोग-सूत्र
इनमें से प्रथम चार आपत्ति सूत्रों का सूत्रतः कथन किया गया है, शेष छह सूत्र अर्थतः वक्तव्य हैं।
आलोचना सूत्रों में प्रथम आठ की अर्थतः वक्तव्यता है और प्रस्तुत सूत्रद्वयी को उसका नवां तथा दसवां सूत्र माना गया है।
प्रश्न होता है कि सूत्र में मासिक, चातुर्मासिक प्रायश्चित्तों का कथन हुआ है फिर सातिरेकमासिक, सातिरेकचातुर्मासिक प्रायश्चित्तों का क्या कारण? आचार्य कहते है-सस्निग्ध हाथ अथवा पात्र से भिक्षा-ग्रहण, बीज, हरित आदि के संघटन, परित्तकाय पर परम्परनिक्षिप्त भिक्षा-ग्रहण आदि कारणों से पनक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। अतः यदि किसी ने सस्निग्ध हाथ से शय्यातरपिण्ड का ग्रहण किया तो उसे सातिरेक मासिक प्रायश्चित्त प्राप्त होगा। इसी प्रकार अनेक भिन्न-भिन्न प्रतिसेवनाओं के संयोग से सातिरेक मासिक, सातिरेक द्वैमासिक, सातिरेक त्रैमासिक आदि प्रायश्चित्त निष्पन्न होते हैं। सातिरेक मासिक, सातिरेक द्वैमासिक आदि प्रायश्चित्तों के द्विकसंयोगी, त्रिकसंयोगी आदि सांयोगिक विकल्प करने पर इन सूत्रों की संख्या हजारों तक पहुंच जाती है। यहां केवल सूचनामात्र के लिए दो चतुष्कसंयोगी सूत्रों का ग्रहण किया गया है। ५. सूत्र १५-१८
प्रस्तुत आलापक में चार सूत्र हैं। प्रथम दो सूत्र मायारहित आलोचना तथा शेष दो सूत्र मायायुक्त आलोचना से संबद्ध हैं। निशीथचूर्णिकार के अनुसार ये आरोपणा सूत्र हैं। इनमें भी
आलोचनाविधिसूत्रों के समान चतुष्कसंयोगी सूत्रों का सूत्रतः ग्रहण । किया गया है। प्रश्न होता है कि यदि ये आलोचनाविधि-सूत्रों के समान ही व्याख्येय हैं तो इनमें उनसे भेद क्या है? आचार्य कहते हैं यहां परिहारतप का कथन किया जाएगा, पूर्वोक्त सूत्रों में उसका कथन नहीं किया गया था।
प्रस्तुत संदर्भ में एक प्रश्न होता है कि एक ही दोष के प्रायश्चित्त में एक को शुद्धतप और दूसरे को परिहारतप, ऐसी विषमता क्यों? यदि परिहारतप से शोधि होती है तो शुद्ध तप से शोधि कैसे होगी?
और यदि शुद्ध तप से शोधि संभव है तो परिहारतप जैसा कर्कश तप करना निरर्थक है? आचार्य प्रस्तुत प्रश्न का समाधान बच्चे की गाड़ी एवं बड़ी गाड़ी के दृष्टांत से करते हैं। बच्चे अपनी छोटी सी गाड़ी पर अपने छोटे-छोटे खिलौने रखकर खेलते हैं और अपना सारा काम आसानी से निष्पन्न कर लेते हैं पर उसी गाड़ी पर यदि वयस्क व्यक्ति अपना सामान लादकर यात्रा करना चाहें तो गाड़ी टूट जाएगी और वे असफल हो जाएंगे। इसी प्रकार बच्चे भी बड़ी गाड़ी से अपना खेल नहीं खेल सकते । ठीक इसी प्रकार उत्तम संहननवाले गीतार्थ पुरुषपुंगव जो परिहारतप कर सकते, वह सामान्य धृति और संहनन वाले अगीतार्थ व्यक्ति करना चाहेंगे तो न वे उसे पूर्ण कर पाएंगे और न उनकी शोधि होगी। अतः अपने वीर्य का गोपन न करते हुए यथोचित तप के द्वारा ही शोधि संभव है, अन्यथा नहीं।
अतिचारप्राप्त भिक्षु के आलोचना करने पर उससे पूछा जाता-भंते ! आपका पर्याय कितना है? आप गीतार्थ हैं या अगीतार्थ? आप क्या वस्तु हैं अर्थात् आचार्य, उपाध्याय आदि क्या हैं? किस तप के योग्य हैं? इत्यादि प्रश्नों के उत्तर में वह जिस तप के योग्य सिद्ध होता, वही तप उसे दिया जाता। जिसे शुद्ध तपःप्रायश्चित्त दिया जाता, उसके लिए किसी विशिष्ट अनुष्ठान अथवा सामाचारी निरूपण की अपेक्षा नहीं रहती। जिसे परिहार तप दिया जाता, उसकी निरुपसर्ग परिसम्पन्नता एवं गच्छ के अन्य समस्त साधुओं को ज्ञापित करने के लिए कायोत्सर्ग करवाया जाता। फिर उसे विशिष्ट सामाचारी में स्थापित किया जाता।
परिहार तपःप्रायश्चित्त वहन करते हुए यदि कोई भिक्षु पुनः किसी दोष का सेवन करता है तो उसका प्रायश्चित्त भी उसी पूर्व तप में आरोपित कर दिया जाता है।
भाष्य साहित्य में परिहार तपःप्रायश्चित्त के ग्रहण एवं परिपालन की विधि आदि का विशद विवेचन उपलब्ध होता है। वर्तमान में पूर्वगत ज्ञान तथा दृढ़ संहनन का व्यवच्छेद हो जाने से इसका अभाव
प्रस्तुत आलापक के प्रत्येक सूत्र में एक सूत्रांश है-'ठवणिज्जं ठवइत्ता'-स्थापनीय की स्थापना-प्ररूपणा करके । स्थापनीय के दो अर्थ हैं-परिहार-तप की समस्त सामाचारी अथवा वे कार्य, जिनका
१. निभा. भा. ४ चू. पृ. ३१५ २. वही, गा.६५७८-६५८३ (सचूर्णि) ३. वही, भा. ४ चू.पृ. ३६९-यदि सा एव व्याख्या, को विशेषः?
अत उच्यते-हेट्ठिमसुत्तेसु परिहारतवो ण भणिओ।
४. वही, गा.६५८४,६५८५ (सचूर्णि) ५. वही, गा. ६५९२, ६५९३ (सचूर्णि) ६. (क) वही, गा. ६५८४-६६०७ (सचूर्णि)
(ख) व्यभा. गा. ५३६-५६२