Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 502
________________ निसीहज्झयणं ४६१ उद्देशक २० : टिप्पण की प्रतिसेवना कर आलोचना की, उसे भी एकमासिक प्रायश्चित्त उद्धार करता है। साधु के लिए प्रायश्चित्त विशोधिकारक होने से दिया जाता है। प्रश्न होता है इस प्रकार विषम प्रतिसेवना का समान सुख का हेतु है। अतः जितने प्रायश्चित्त से आत्म-विशोधि हो, प्रायश्चित्त दिया जाए तो क्या आलोचनाई के प्रति रागद्वेष की उतना दंड देना चाहिए। आपत्ति नहीं आती? ३. सूत्र ११,१२ आचार्य कहते हैं-विषम प्रतिसेवना में समान प्रायश्चित्त का प्रथम पांच सूत्रों में कृत्स्न आरोपणा का वर्णन है-जितनी आधार है-सर्वज्ञप्रणीत सूत्र । सर्वज्ञ वीतराग होते हैं, अतः राग-द्वेष प्रतिसवेना, उतना प्रायश्चित्त । अग्रिम पांच सूत्रों में बहुशः प्रतिसेवना की आपत्ति संभव नहीं। का एक प्रायश्चित्त है, शेष का उसी में अन्तर्भाव हो जाता है। इस जिस प्रकार वैद्य उतनी औषध देते हैं, जितने से रोग शान्त प्रकार इन दस सूत्रों का दो सूत्रों में समाहार हो जाता है। प्रस्तुत हो, उसी प्रकार आचार्य उतना ही प्रायश्चित्त देते हैं, जितने से सूत्रद्वयी इन दोनों के सांयोगिक विकल्पों का निदर्शन है। वस्तुतः अतिचार की विशुद्धि हो। विषम अतिचारों की भी समान विशुद्धि सकलसूत्रों एवं बहुशः सूत्रों के सांयोगिक विकल्प छब्बीस-छब्बीस संभव है। इस विषय में आचार्य विषम मूल्य वाले गधों एवं पांच होते हैं-द्विकसंयोगी दस, त्रिकसंयोगी दस, चतुष्कसंयोगी पांच और वणिकों का दृष्टान्त देते हैं। जिस प्रकार पांच वणिकों को क्रमशः पंचसंयोगी एक। सूत्रकार ने अंतिम पंचसंयोगी भंग का ग्रहण किया एक, दो, तीन, चार और पांच गधों का वितरण करने वाला व्यक्ति है। भाष्यकार एवं चूर्णिकार का मत है कि जिस प्रकार अग्रभाग को उन्हें समान मूल्य की वस्तु देने के कारण रागी अथवा द्वेषी नहीं और पकड़ कर खींची गई वल्ली मूलसहित खींच ली जाती है, उसी न उससे वणिकों की कोई हानि होती, उसी प्रकार राग और द्वेष की प्रकार अंतिम विकल्प से शेष सभी सांयोगिक विकल्पों को अर्थतः वृद्धि अथवा हानि के आधार पर प्रायश्चित्त में वृद्धि अथवा हानि ग्रहण कर लेना चाहिए, यही इन दोनों सूत्रों का प्रयोजन है।' करने वाले आचार्य भी रागी अथवा द्वेषी नहीं होते। किसी ने बहत प्रस्तुत प्रसंग में भाष्यकार ने अनेक दोषों के एकत्व-अनेक से लघुमासिक प्रायश्चित्त जितनी प्रतिसेवनाएं मंद अनुभावों से की प्रतिसेवनाओं का एक प्रायश्चित्त देने का अनेक दृष्टांतों से निरूपण है, उन सबकी आलोचना एक साथ, एक समय में करता है, ऋजुभावों किया है। उदाहरणार्थ-एक रोगी के वात, पित्त आदि में से एक दोष से आलोचना करता है तो उसे उन सब एकजातीय प्रतिसेवनाओं का इतना अधिक कुपित होता है कि एक औषध से शांत नहीं होता एक लघुमासिक प्रायश्चित्त दिया जाता है। जबकि किसी रोगी के तीनों दोष सामान्य रूप से कुपित होते हैं और प्रश्न होता है कि यदि कारण में अयतना से प्रतिसेवना कर वे सारे एक ही औषध से शांत हो सकते हैं। गीतार्थ एक साथ आलोचना करता है तो उसे अनेक प्रतिसेवनाओं जैसे अत्यन्त गहरे कीचड़ को दूर करने के लिए जिस खार का का एक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है तो हम भी अनेक प्रतिसेवनाओं की प्रयोग किया जाता है, वह अन्य मलों का भी शोधन कर देता है उसी एक साथ ही आलोचना करें तो कम प्रायश्चित्त वहन करना पड़ेगा? . प्रकार एक गुरुतर दंड से अनेक छोटे-छोटे दोषों का शोधन संभव आचार्य कहते हैं अनेक बार प्रतिसेवनाओं का एक बार तुम्हें एक है। दंड मिलेगा, पर यदि बार-बार जानबूझ कर ऐसा करोगे तो कालान्तर प्रस्तुत संदर्भ में भाष्य एवं चूर्णि में आलोचक, आलोचनाह, में छेद अथवा मूल प्रायश्चित्त भी मिल सकता है। प्रस्तुत प्रसंग में कर्मबन्ध, आलोचनाविधि आदि अनेक विषयों का संस्पर्श किया आचार्य खल्वाट तंबोली एवं सिपाहीपुत्र का दृष्टान्त देते हैं। सिर में ___ गया है। टकोरा मारने पर जब सिपाहीपुत्र को अधिक तंबोल प्राप्त हुआ तो ४. सूत्र १३,१४ उसने उसी लोभ में ठाकुर के सिर पर टकोरा मार दिया, फलतः उसे चूर्णिकार के अनुसार निशीथ के अन्तिम उद्देशक में तीन जीवन से हाथ धोना पड़ा। प्रकार के सूत्र प्रज्ञप्त हैं-१. आपत्ति-सूत्र २. आलोचनाविधि-सूत्र प्रायश्चित्त स्वरूप प्राप्त होने वाला दंड विशोधिकारक होता और ३. आरोपणा-सूत्र । इनमें प्रत्येक में दस-दस सूत्र हैंहै। उसे सम्यक् प्रकार से वहन करने वाला संसार-सागर से अपना १. सकल प्रतिसेवना सूत्र १. निभा. गा. ६४०३ (सचूर्णि) २. वही, गा. ६४०२ (सचूर्णि) ३. वही, गा. ६४०४-६४०६ (सचूर्णि) वही, गा. ६४१२-६४१४ ५. वही, गा. ६४१५, ६४१६ ६. वही, गा. ६४१८, ६४१९ (सचूर्णि) ७. वही, भा. ४ चू.पृ. ३१४, ३१५ ८. वही, गा. ६५०५-६५०७ (सचूर्णि) ९. वही, भा. ४ चू.पृ. ३४१ १०. वही, गा. ६४२७-६५७४ ११. वही, भा. ४ चू.पृ. ३६०-णिसीहस्स पच्छिमे उद्देसगे तिविहभेदा सुत्ता, तं जहा-आवत्तिसुत्ता, आलोयणविधिसुत्ता आरोवणासुत्ता य।

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