Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
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निसीहज्झयणं
प्रतिनाविक इस तट पर स्थित साधु नाविक को कहे नदी आदि के आधे भाग में अन्य नाविक आकर मुझे ले जाएगा ऐसा कहकर आधे या अपूर्ण मार्ग के लिए निर्णीत नाविक प्रतिनाविक होता है।
५. सूत्र १३-१६
जहां स्थलमार्ग से गमन संभव न हो, वहां भिक्षु विशेष परिस्थिति में नौका से गमन करता है। नौकारूढ़ भिक्षु को यदि कोई नाविक नौसंचालन में सहयोग देने की प्रार्थना करे तो उसका सहयोग करना अथवा नौका में छिद्र के कारण पानी भर रहा हो तो नौका का उत्सेचन करना, उसके छिद्र को किसी प्रकार से ढकना आदि कार्य सावद्य हैं, गृहस्थ- प्रायोग्य कार्य हैं । अतः भिक्षु के लिए करणीय नहीं ।
किस प्रकार नौका में स्थित गृहस्थ भिक्षु को इन सब कार्यों के लिए निवेदन करता है और उसे अक्षम पाकर स्वयं करने का कहता है, इसका सुन्दर चित्रण आयारचूला में उपलब्ध होता है।
प्रस्तुत सूत्रचतुष्टयी में इन प्रतिषिद्ध कार्यों के लिए लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का विधान है।
णिसीहज्झयणं में नौका- वहन के चार साधनों का उल्लेख हुआ है आयारचूला में प्रस्तुत सन्दर्भ में पांच साधन आए हैं।' प्रस्तुत आगम में नौका- उत्सेचन के भी चार साधनों -भाजन, प्रतिग्रह, मात्रक और नावा उत्सेचनक का उल्लेख हुआ है, जबकि आधारचूला में भाजन के स्थान पर हस्त और पाद का उल्लेख हुआ है। प्रस्तुत आलापक में छिद्र पिधान के लिए भी छह साधनों हाथ, पैर, पीपल का पत्ता, कुश का पत्ता, मृत्तिका और वस्त्र का कोना का उल्लेख हुआ है जबकि आयारचूला में इस प्रसंग में ऊरु, उदर, बाहु, सिर आदि का उल्लेख होने से ये बारह हो जाते हैं।' दोनों आगमों में इस प्रकार का पाठ विषयक भेद सकारण है अथवा आगमसंपादन एवं आगम-वाचना में सहज ही हो गया है - यह अन्वेषण का विषय है ।
शब्द-विमर्श
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४२१
आकसाव - खिंचवाना ।
१. निशी. (सं.व्या.) पृ. ४०५ एकं नाविकं प्रति अन्यो नाविकः प्रतिनाविकः ।
२. आचू. ३/१७-२१
३. वही
४. वही
५. वही
६. दे.श. को
७. (क) पाइय परि (अलित्त ) ।
(ख) निभा. भा. ४ चू. पृ. २०९
उद्देशक १८ : टिप्पण • ओकसाव निमग्न करवाना, खिंचवाना बहा देना। • खेवाव- नौका खेवाना। यह देशी धातु है।' कड्ड - बाहर निकालना ।
लम्बा
अलित्त - जहाज को चलाने का काष्ठ, जो पतला, एवं अग्रभाग में पीपल के पत्ते के समान आकृति वाला होता है, वह अलित्र कहलाता है। इसे नौका दण्ड भी कहा जाता है।"
• फिहय - फिहय का अर्थ है-नाव चलाने अथवा खेने का साधन, काष्ठ विशेष', 'फिल्म' देशी शब्द है।
• वंस - बांस या चप्पू, जिससे पानी का थाह जाना जाए। • बल-जिसके द्वारा नौका को बाएं, दाएं मोड़ जाए, वह बल्ला। इसे वलय, चलग अथवा रण्ण भी कहा गया है। " • उलिंग-उलिंग का अर्थ है छिद्र
• कज्जलमाणि - पानी से भरती हुई ।
६. सूत्र १७-३२
भिक्षु गृहस्थ से अशन, पान आदि ग्रहण करता है, उस समय उसके लिए यह ज्ञातव्य होता है कि दायक गृहस्थ कहां, किस प्रकार खड़ा है और स्वयं भिक्षु किस रूप में, कहां खड़ा है? प्रस्तुत आलापक में दाता और ग्राहक के सोलह सांयोगिक विकल्पों का ग्रहण हुआ है, जिनमें भिक्षा ग्रहण करने से प्रायश्चित्त प्राप्त होता है
दाता नौकागत
नौकागत
नौकागत
नौकागत
भिक्षु नौकागत
जलगत
पंकगत
स्थलगत
इसी प्रकार जलगत, पंकगत और स्थलगत दाता के साथ भिक्षु के पुनः चार-चार भंग होने से कुल सोलह भंग बन जाते हैं।
नौकागत भिक्षु अथवा दाता अप्काय पर परम्परस्थित है, पंक, जल एवं स्थल सचित्त अथवा मिश्र होता है, समुद्र के अंतद्वप की पृथिवी सचित्त मिश्र अथवा सस्निग्ध होती है" अतः स्वयं
"
वहां पर स्थित होकर अशन, पान आदि का ग्रहण अथवा वहां
८.
दे. श. को.
९. निभा. गा. ६०१५ - वंसेण थाहि गम्मति ।
१०. वही - चलएण वलिज्जति णावा ।
१९. वही, भा. ४ चू. पृ. २०९ - उत्तिंगं णाम छिद्रं । १२. (क) दे. श. को.
(ख) निभा. भा. ४ चू.पू. २१० - कज्जलमाणि ति भरिज्जमाणं । १३. वही, पृ. २१२ -थलगतस्स समुद्दस्स अंतरदीवे संभवति, साढ सचित्ता मीसा वा ससिणिद्धा वा तेण पडिसिज्झति ।