Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
View full book text
________________
शब्द विमर्श
निसीहज्झयणं
४३३
उद्देशक १९ : टिप्पण मादक एवं गर्हणीय होने से अग्राह्य है। स्थानकवासी परम्परा के परिहाणो से यतना) न करने तथा अयतना करने का प्रायश्चित्त युवाचार्य मधुकरमुनि ने इस संदर्भ में वियड शब्द का अर्थ अफीम प्रज्ञप्त है। आदि औषध' तथा मुनि घासीलालजी ने द्राक्षासव आदि बहुमूल्य द्रव्य किया है। तेरापंथ के चतुर्थ आचार्य श्रीमज्जयाचार्य ने वियड दत्ती-चुल्लुभर। का अर्थ कस्तूरी आदि बहुमूल्य वस्तु किया है।
३. सूत्र८ बहुमूल्य विशिष्ट पानक द्रव्यों के विषय में भी प्रस्तुत आलापक लौकिक, वैदिक एवं सामयिक तीनों दृष्टियों से पूर्व संध्या के सूत्र समान रूप से घटित होते हैं। मात्रातिक्रान्त ग्रहण करने से
रूप से घटित होते हैं। मानातिकान्त ग्रहण करने से (रात्रि एवं दिन का मध्य भाग), पश्चिमसंध्या (दिन के अन्तिम एवं अप्रत्यय, गृद्धि, उड्डाह तथा छानने से जीव-हिंसा आदि अयतना
रात्रि के प्रथम प्रहर का मध्य भाग) मध्याह्न (दिन के द्वितीय एवं संभव है। अतः प्रस्तुत वियड-पद में 'वियड' का 'बहुमूल्य पानक
तृतीय प्रहर का मध्य भाग) तथा मध्यरात्रि (रात्रि का मध्यवर्ती एक द्रव्य' यही अर्थ सुसंगत प्रतीत होता है। प्रस्तुत अर्थ में इसे देशी
मुहर्त)-इन चारों संध्याओं में स्वाध्याय करना, सूत्रपाठ करना उचित शब्द माना गया है।
नहीं माना जाता। यह गुह्यक देवताओं के विचरण का काल होता २. सूत्र १-७
है। वे प्रमत्त भिक्षु को छलित कर सकते हैं। पूर्वसंध्या और पश्चिमप्रथम चार सूत्रों में 'वियड' प्राप्त करने के लिए प्रतिषेवित
संध्या में श्रमण एवं श्रमणोपासक को 'आवश्यक' करना होता है। एषणा-दोषों का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। अग्रिम तीन सूत्र आपवादिक
यदि वह अन्य स्वाध्याय करता रहेगा तो आवश्यक में उपयुक्त नहीं हैं। इनमें ग्लान्य आदि अपवादों में 'वियड' ग्रहण करने आदि में होने
हो सकता। अकाल में स्वाध्याय करने से ज्ञानाचार की विराधना वाली अयतना का प्रायश्चित्त है। दत्ती-सूत्र से वियड की मात्रा का
होती है। अतः सामान्यतः भिक्षु को चतुःसंध्या में सूत्र-स्वाध्याय ज्ञान होता है। चूर्णिकार के अनुसार ग्लान के लिए गर्हित विगय
नहीं करना चाहिए।
___ ध्यातव्य है कि निसीहज्झयणं के प्रस्तुत सूत्र में पूर्वसंध्या, (मद्य-मांस) ग्रहण करते समय भिक्षु कहे-अहो! अकज्जमिणं किं
पश्चिमसंध्या, अपराह्न एवं अर्धरात्र में स्वाध्याय करने वाले को कुणिमो, अण्णहा गिलाणो न पणप्पइ'।'
प्रायश्चित्ताह कहा गया है। इस संदर्भ में ठाणं का निम्नोक्त पाठ गर्हित विगय को प्रमाणोपेत ग्रहण करने के मुख्यतः तीन लाभ
मननीय हैहैं-१. दाता का विश्वास २. स्वयं की गर्हित अभिलाषा का प्रतिघात
•णो कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गंथीणं वा चउहि संझाहिं सज्झायं तथा ३. पापदृष्टि (विरोधी) लोगों का प्रतिघात–वे सोचते हैं,
करेत्तए, तं जहा–पढमाए, पच्छिमाए, मज्झण्हे, अड्डरत्ते। निश्चित ही ये ग्लान के लिए अनिवार्यता के कारण ले जा रहे हैं,
• कप्पइ णिग्गथाणं वा णिग्गंथीणं वा चउक्कालं सज्झायं लोलुपता से नहीं।
करेत्तए, तं जहा–पुव्वण्हे, अवरण्हे, पओसे, पच्चूसे। निशीथभाष्य एवं चूर्णि के अनुसार वियड का ग्रहण शय्यातर
चूंकि उपर्युक्त पाठ में अपराह्न को सूत्रपौरुषी माना गया है अथवा उसके सन्निकटवर्ती प्राचीन, विवेकशील एवं कुलीन श्रावकों
तथा मध्याह्न को सूत्रपाठ के लिए वर्जित माना गया है। इससे ऐसा के घर से किया जाए ताकि ग्रामानुग्राम परिव्रजन से सम्बद्ध परिगलन,
प्रतीत होता है कि प्रस्तुत सूत्र में अपराह्न पद का प्रयोग मध्याह्न के प्रपतन, उड्डाह आदि दोषों का प्रसंग ही उपस्थित न हो। अपवाद में
अर्थ में हुआ है। भी पूर्व परिगालित वियड ही प्रथमतः ग्राह्य है ताकि उसे छानने के भाष्यकार के अनुसार शब्दप्रतिबद्ध शय्या में प्रविचार आदि बाद किट्टिस आदि को गिराने से होने वाली अयतना' का परिहार हो के शब्दों को न सुनने के लिए, रात्रि जागरण के लिए, अभिनवगृहीत सके। इस प्रकार भाष्य एवं चूर्णि के अनुसार प्रथम सूत्रचतुष्टयी में सूत्र की अव्यवच्छित्ति आदि के लिए यतनापूर्वक स्वाध्याय करना दर्पतः कृत अनेषणा का प्रायश्चित्त है तथा शेष तीनों में अपवाद में प्रस्तुतसूत्र का अपवाद है।११ यथायोग्य प्रयत्न (तीन बार शुद्ध एवं एषणीय द्रव्य की खोज, पनक- तुलना हेतु द्रष्टव्य-ठाणं ४।२५७
१. निशी. (हि.) पृ. ४०४,४०५ २. निशी. (सं. व्या.) पृ. ४१४-विकृत्या संपाद्यमानं व्यपगत
जीवमचित्तं प्रपाणकादि वस्तु विकृतं अचित्तं द्राक्षासवादि प्रपाणकं
बहुमूल्यम् (द्रवद्रव्यम्) ३. नि. हुंडी (अप्रकाशित)-अचित्त बहुमोली वस्तु कस्तुरीयादि। ४. निभा. भा. ३ चू.पृ. १३६ ५. वही (गा. ३१७० की चूर्णि)
६. वही, गा. ६०४३ ७. वही, गा. ६०५० ८. वही, भा. ४ चू.पृ. २२१-दत्तीए पमाणं पसती। ९. वही, गा. ६०५५ सचूर्णि १०. ठाणं ४/२५७,२५८ ११. निभा. गा. ६०५६-६०५८ सचूर्णि