Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 475
________________ उद्देशक १९ : टिप्पण ४३४ निसीहल्झयणं ४. सूत्र ९,१० कहा जाता है। ठाणं में केवल चार महाप्रतिपदाओं में स्वाध्याय का स्वाध्यायकाल के आधार पर जैनागमों के दो विभाग हैं- निषेध किया गया है। प्रस्तुत आगम में महामहों और महाप्रतिपदाओं १. कालिकश्रुत-जिनका स्वाध्याय केवल चार सूत्रपौरुषी में । में स्वाध्याय करने वाले के लिए प्रायश्चित्त का कथन किया गया है। ही किया जा सकता है। इन्द्रमह आषाढ़ी पूर्णिमा, स्कन्दमह आश्विनी पूर्णिमा, यक्षमह कार्तिकी २. उत्कालिकश्रुत-चतुःसंध्या के अतिरिक्त दिन एवं रात में पूर्णिमा तथा भूतमह चैत्री पूर्णिमा को मनाया जाता है। निशीथकभी भी जिनका स्वाध्याय किया जा सकता है।' चूर्णि के अनुसार लाटदेश में इन्द्रमह श्रावण पूर्णिमा तथा स्थानांगवर्तमान में उपलब्ध किसी भी आगम में कालिक एवं उत्कालिक वृत्ति के अनुसार इन्द्रमह आश्विन पूर्णिमा को मनाया जाता है।' श्रुत का कोई विभेदक लक्षण अथवा परिभाषा प्राप्त नहीं होती, आषाढ़पूर्णिमा, श्रावणपूर्णिमा आदि महोत्सव के अन्तिम दिवस केवल नंदी में कालिक एवं उत्कालिक आगमों की तालिका उपलब्ध होते थे। जिस दिन महोत्सव प्रारम्भ होता, उसी दिन स्वाध्याय बन्द होती है। तत्त्वार्थवार्तिक के अनुसार स्वाध्यायकाल में जिसका कर दिया जाता था। महोत्सव की समाप्ति पूर्णिमा को हो जाती, काल नियत है वह कालिक है, अनियतकाल वाला उत्कालिक है। फिर भी प्रतिपदा के दिन स्वाध्याय नहीं किया जाता। निशीथभाष्यकार उसके आधार पर सारे ही अंग आगम कालिकश्रुत हैं। जो भिक्षु के अनुसार प्रतिपदा के दिन महोत्सव अनुवृत्त (चालू) रहता है। उत्काल, संध्या-काल अथवा अस्वाध्यायी के समय श्रुत का महोत्सव के निमित्त एकत्र की हुई मदिरा का पान उस दिन भी स्वाध्याय करता है, उद्देश, समुद्देश, वाचना, पृच्छना अथवा परिवर्तना चलता है। महोत्सव के दिनों में मद्यपान से बावले बने हुए लोग करता है, वह प्रायश्चित्तार्ह होता है। प्रतिपदा को अपने मित्रों को बुलाते हैं, उन्हें मद्यपान कराते हैं। इस __ अंग साहित्य में सबसे विशाल आगम है दृष्टिवाद। उसमें प्रकार प्रतिपदा का दिन महोत्सव के परिशेष के रूप में उसी श्रृंखला सप्तविध नय के सात सौ उत्तर भेदों के अनुसार द्रव्य की प्ररूपणा से जुड़ जाता है। की गई है। परिकर्म सूत्र में परमाणु आदि के वर्ण, गन्ध आदि का महोत्सव के दिनों में स्वाध्याय के निषेध का मुख्य कारण विविध विकल्पों से वर्णन किया गया है। इसी प्रकार अष्टांग निमित्त है-लोकविरुद्धता। महोत्सव के समय आगमस्वाध्याय को लोग आदि का विस्तरतः निरूपण हुआ है। अतः उसके लिए सात पसन्द क्यों नहीं करते यह अन्वेषण का विषय है। पृच्छाओं का तथा शेष कालिक श्रुत के लिए तीन पृच्छा का परिमाण अस्वाध्यायी की परम्परा के मूल कारण का अनुसंधान वैदिक निर्धारित है। साहित्य एवं आयुर्वेद के ग्रन्थों के गंभीर अध्ययन से संभव है। पृच्छा का परिमाण चार प्रकार से निर्धारित किया गया है विस्तार हेतु द्रष्टव्य ठाणं ४/२५६-२५८ का टिप्पण १. जितना अंश अपुनरुक्त अवस्था में बोलकर पूछा जा ६. सूत्र १३ सके। निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को चार कालों में आगम का स्वाध्याय २. तीन श्लोक जितना अंश। करना चाहिए-१. पूर्वाह्न में २. अपराह्न में ३. प्रदोष में और ३. जितने अंश में प्रकरण (प्रसंग) सम्पन्न हो जाए। ४. प्रत्यूष में। ४. आचार्य के द्वारा उच्चारित जितना अंश शिष्य आसानी से दिन एवं रात्रि की प्रथम और अन्तिम प्रहर कालिक सूत्रों का ग्रहण कर सके। स्वाध्यायकाल है। जो भिक्षु इन चार प्रहरों में कालिकश्रुत का ५. सूत्र ११,१२ अध्ययन नहीं करता, देशकथा, भक्तकथा आदि में प्रमत्त रहता है, महोत्सव के बाद जो प्रतिपदाएं आती हैं, उनको महाप्रतिपदा उसके लिए अपूर्व श्रुत का ग्रहण संभव नहीं। पूर्वगृहीत श्रुत भी १. (क) निभा. भा. ४ चू. पृ. २२८-दिवसस्स पढमचरिमासु णिसीए ४. निभा. ४ चू.पृ. २२६ य पढमचरिमासुय-एयासु चउसु वि कालियसुयस्स गहणं गुणणं ५. वही, गा. ६०६०,६०६१ च करेज्ज । सेसासु त्ति दिवसस्स बितियाए उक्कालियसुयस्स ६. ठाणं ४/२५६ गहणं करेति, अत्थं वा सुणेति। निभा. गा. ६०६५ (ख) वही, भा. १ चू.पृ. ७ (क) वही, भा. ४ चू.पृ. २२६-इह लाडेसु सावणपोण्णिमाए भवति कालियं काले एव ण उग्घाड़पोरुसिए। इंदमहो। उक्कालियं सव्वासु पोरुसीसु कालवेलं मोत्तुं ।। (ख) स्था. वृ. प. २०३ २. नंदी सू. ७७,७८ ९. निभा. गा. ६०६८ ३. तवा. १/२०/१४-स्वाध्यायकाले नियतकालं कालिकम्, १०. ठाणं ४।२५८ अनियतकालमुत्कालिकम्।

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