Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
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निसीहज्झयणं
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परिवर्तना, मनन आदि के अभाव में नष्ट हो जाता है। दिन एवं रात्रि की दूसरी एवं तीसरी प्रहर के विषय में भजना है। भिक्षाटन, शयन आदि के अतिरिक्त जितना संभव हो, उत्कालिक श्रुत के सूत्रार्थ का ग्रहण एवं मनन करे- ऐसा भाष्यकार का मत है।' अशिव, अवमौदर्य आदि आगाढ़ कारण इसके अपवाद हैं।
७. सूत्र १४, १५
ववहारो में बतलाया गया है-मुनि अस्वाध्यायिक वातावरण में स्वाध्याय न करे, स्वाध्यायिक वातावरण में ही स्वाध्याय करे । * अस्वाध्यायी के दो प्रकार हैं- आन्तरिक्ष और औदारिक । ठाणं में इन दोनों के ही दस-दस प्रकार बतलाये गए हैं। *
अस्वाध्यायी के अन्य भी दो भेद होते हैं-आत्मसमुत्य और परसमुत्थ । स्वयं के शरीर में व्रण आदि से रक्त झरना, शरीर का अशुचि से खरंटित होना यह आत्मसमुत्थित अस्वाध्यायी है।' परसमुत्थ अस्वाध्यायी के पांच प्रकार हैं
१. संयमघाती - महिका, सचित्त रज, वर्षा आदि । २. औत्पातिक पांशुवृष्टि, मांसवृष्टि, रुधिरवृष्टि आदि । ३. देवप्रयुक्त - गन्धर्वनगर, उल्कापात आदि ।
४. व्युद्ग्रह - राजविग्रह, विप्लव, युद्ध आदि ।
५. शरीरसंबंधी - मनुष्य अथवा तिर्यंच के कलेवर, रक्त आदि । प्रस्तुत आगम में अस्वाध्यायी के अन्तर्गत समस्त परसमुत्थ एवं आन्तरिक्ष अस्वाध्यायी को ग्रहण किया गया है।
अस्वाध्यायी में स्वाध्यायनिषेध के मुख्य कारण हैं - १. श्रुतज्ञान की अभक्ति २. लोकविरुद्ध व्यवहार ३. प्रमत्त छलना ४. विद्यासाधना का वैगुण्य ५. श्रुतज्ञान के आचार की विराधना ६. वैधर्म्यता (श्रुतधर्म के विपरीत आचरण) ७. उड्डाह और ८. अप्रीति ।
विस्तार हेतु द्रष्टव्य-ठाणं १०/२०, २१ का टिप्पण । निभा. ६०७४-६१७९, व्यव. भा. उ. ७ पृ. २६६-३२०, आव. नि. गा. १३६५-१३७५ । ८. सूत्र १६,१७
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प्रस्तुत सूत्रद्वयी का सम्बन्ध सूत्र वाचना के क्रम से है। ववहारो में आगम-वाचना के क्रम का निरूपण मिलता है।' जो क्रम एवं विधि आगम में प्रज्ञप्त है, उसका उल्लंघन विधि का अतिक्रमण होने से प्रतिषिद्ध है, अतः प्रायश्चित्तार्ह माना गया है। जो साधक
१.
निभा. गा. ६०७१
२. वही, गा० ६०७२
३.
४.
वव. ७/१७, १८
ठाणं १०/२०,२१
निभा. गा. ६०७४ तथा भा. ४ चू. पृ. २४९
वही, गा. ६०७५
वही, गा. ६१७०, ६१७१ सचूर्णि
५.
६.
७.
८. वव. १०/२५-३९
९.
निभा. भा. ४ चू.पू. २५२
उद्देशक १९ : टिप्पण
उत्सर्ग प्रतिपादक सूत्रों से पूर्व अपवाद प्रतिपादक अथवा अपवादबहुल सूत्रों को पढ़ता है, उसकी बुद्धि उत्सर्ग-मार्ग से भावित नहीं हो पाती, फलतः वह उत्सर्ग एवं अपवाद पर सम्यक् श्रद्धा नहीं कर सकता । वह न उत्सर्गश्रुत पर श्रद्धा कर पाता है और न अपवादश्रुत को सम्यक् ग्रहण कर पाता है। पूर्वपाठ्य श्रुत को बिना पढ़े ही वह अपवादश्रुत के अध्ययन से बहुश्रुत कहलाने लगता है । " जब उसे सामान्य बात पूछी जाती है, तब वह उसका सम्यग् उत्तर नहीं दे पाता, फलतः उसका एवं उसके गण का अवर्णवाद होता है। " अतः व्युत्क्रम से श्रुत का वाचन करने वाला आज्ञाभंग, अनवस्था आदि दोषों को प्राप्त होता है।"
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जिस प्रकार पूर्ववर्ती अंगों, अध्ययनों आदि से पूर्व उत्तरवर्ती अंगों, अध्ययनों आदि का वाचन नहीं करना चाहिए, उसी प्रकार आचारांग से पूर्व छेदसूत्रों का वाचन तथा चरणकरणानुयोग से पूर्व धर्मकथानुयोग, गणितानुयोग एवं द्रव्यानुयोग का व्याख्यान करने का निषेध है । १२
शब्द-विमर्श
१. हेठिल्ल - अधस्तनवर्ती अर्थात् पूर्ववर्ती ।"
२. समवसरण - मिलन, जहां सूत्रागम एवं अर्थागम का मिलन होता है, जीव आदि नौ पदार्थों का अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का जहां मिलन हो, वह समवसरण कहलाता है। यहां समवसरण शब्द से अंग, श्रुतस्कन्ध, अध्ययन, उद्देशक एवं सूत्र सबका ग्रहण हो जाता है । १४
३. उवरिल्ल - उपरितनवर्ती अर्थात् पश्चाद्वर्ती (अग्रिम) । ४. नौ ब्रह्मचर्य आचारांग सूत्र अथवा सम्पूर्ण आचार ५. उत्तमत छेदसूत्र अथवा दृष्टिवाद।
९. सूत्र १८ - २३
आगमों के सूत्र एवं अर्थ की वाचना देने से पूर्व शिष्य की योग्यता का ज्ञान करना आवश्यक है। जिस प्रकार कच्चे अथवा अधपक्के पड़े में यदि पानी डाला जाता है तो वह पानी स्वयं के तथा घड़े के विनाश का कारण बनता है उसी प्रकार अल्प अर्हता वाले व्यक्ति को दिया गया ज्ञान स्वयं (ज्ञान) एवं उस व्यक्ति दोनों के लिए अहितकर होता है। to
योग्यता के तीन मापक बनते हैं - १. अवस्था २. प्राथमिक
१०. वही, गा. ६१८२
१९. वही, गा. ६१८०
१२. वही, भा. ४ चू. पृ. २५२, २५३
१३. वही, पृ. २५२ - जं जस्स आदीए तं तस्स हिट्ठिल्लं ।
१४. वही, पृ. २५२
१५. वही, पृ. २५३ - णवबंभचेरग्गहणेण सव्वो आयारो गहितो ।
१६. वही, गा. ६१८४
१७. वही, गा. ६२४३