Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 427
________________ उद्देशक १७ : सूत्र ९२-९४ वियडेण वा उच्छोलावेत्ता वा पधोवावेत्ता वा अण्णयरेणं आलेवणजाएणं आलिंपावेत्ता वा विपिवेत्ता वा तेल्लेण वा पण वा वसाए वा णवणीएण वा अब्भंगावेज्ज वा मक्खावेज्ज था, अभंगातं या मक्खायेंतं वा सातिज्जति ।। वा ९२. जे निग्गंथे निग्गंथीए कायंसि गंड वा पिडयं वा अरइयं वा असियं वा भगंदलं वा अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा अण्णयरेणं तिक्खेणं सत्थजाएणं अच्छिंदावेत्ता विच्छिंदावेत्ता वा पूर्व वा सोणियं वा णीहरावेत्ता वा विसोहावेत्ता वा सीओदग वियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलावेत्ता वा पधोवावेत्ता वा अण्णयरेणं आलेवणजाएणं आलिंपावेत्ता वा विलिंपावेत्ता वा तेल्लेण वा घएण वा वसाए वा णवणीएण वा अभंगावेत्ता या मक्खावेत्ता वा अण्णयरेणं धूवणजाएणं धूवावेज्ज वा पधूवावेज्ज वा, धूवावेंतं वा पधूवावेंतं वा सातिज्जति ।। · किमि पर्द ९३. जो निम्थे निग्गंधीए पालुकिमियं वा कुच्छिकिमियं अण्णउत्थिएण वा गारत्थि एण अंगुलीए णिवेसावियणिवेसाविय णीहरावेति, णीहरावेंतं वा सातिज्जति ।। वा ह-सिहा पदं ९४. जे निग्गंधी निर्णयस्स दीहाओ ह - सिहाओ अण्णउत्थिएण वा गारन्थिएण वा कप्पावेज्ज वा ३८६ आलेपनजातेन आलेप्य वा विलेप्य वा तैलेन वा घृतेन वा वसया वा नवनीतेन वा अभ्यञ्जयेद् वा प्रक्षयेद् वा, अभ्यञ्जयन्तं वा सक्षवन्तं वा स्वदते । यो निर्ग्रन्थः निर्ग्रन्थ्याः काये गण्डं वा पिटकं वा अरतिकां वा अर्शो वा भगन्दरं वा अन्ययूथिकेन वा अगारस्थितेन वा अन्यतरेण तीक्ष्णेन शस्त्रजातेन आच्छेद्य वा विच्छेद्य वा पूयं वा शोणितं वा निस्सार्थ वा विशोध्य वा शीतोदकविकृतेन वा उष्णोदकविकृतेन वा उत्क्षाल्य वा प्रधाव्य अन्यतरेण आलेपनजातेन आलेप्य वा विलेप्य वा तैलेन वा तेन वा वसया या नवनीतेन वा अभ्यज्य वा प्रक्षयित्वा वा अन्यतरेण धूपनजातेन धूपयेद् वा प्रधूपयेद् वा, धूपयन्तं वा प्रधूपवन्तं वा स्वदते। . कृमि-पदम् यो निर्ग्रन्थः निसन्ध्याः पायुकृमिकं वा कुक्षिकृमिकं वा अन्ययूथिकेन वा अगारस्थितेन वा अंगुल्या निवेश्यनिवेश्य निस्सारयति, निस्सारयन्तं वा स्वदते। नखशिखा-पदम् यो निर्ग्रन्थः निर्ग्रन्थ्याः दीर्घाः नखशिखाः अन्ययूथिन वा अगारस्थितेन वा कल्पयेद् वा निसीहज्झयणं करवाकर, उस पर किसी आलेपनजात से आलेपन अथवा विलेपन करवाकर, उसका तैल, घृत, वसा अथवा मक्खन से अभ्यंगन करवाता है अथवा म्रक्षण करवाता है और अभ्यंगन अथवा प्रक्षण करवाने वाले का अनुमोदन करता है। ९२. जो निर्ग्रन्थ अन्यतीर्थिक अथवा गृहस्थ से निर्ग्रन्थी के शरीर में हुए गंडमाल, फोड़ा, फुंसी, अर्श अथवा भगन्दर का किसी तीक्ष्ण शस्त्रजात से आच्छेदन अथवा विच्छेदन करवाकर उसका पीव अथवा रक्त निकलवाकर अथवा साफ करवाकर, उसका प्रासुक शीतल जल अथवा प्रासुक उष्ण जल से उत्क्षालन अथवा प्रधावन करवाकर, उस पर किसी आलेपनजात से आलेपन अथवा विलेपन करवाकर, उसका तैल, घृत, वसा अथवा मक्खन से अभ्यंगन अथवा प्रक्षण करवाकर, उसे किसी धूपजात से धूपित करवाता है अथवा प्रधूपित करवाता है और धूपित अथवा प्रधूपित करवाने वाले का अनुमोदन करता है। कृमि पद - ९३. जो निर्ग्रन्थ अन्यतीर्थिक अथवा गृहस्थ से निर्ग्रन्थी के अपान की कृमि अथवा कुक्षि की कृमि को अंगुली डाल डाल कर निकलवाता है अथवा निकलवाने वाले का अनुमोदन करता है । नखशिखा पद - ९४. जो निर्ग्रन्थ अन्यतीर्थिक अथवा गृहस्थ से निर्ग्रन्थी की दीर्घ नखशिखा को कटवाता है अथवा व्यवस्थित करवाता है

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