Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
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आमुख
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निसीहज्झयणं
उसके नीचे दब जाने से छोटे-मोटे जीवों का अभिहनन हो सकता है, उनका संघट्टन, संघर्षण हो सकता है।' दसवे आलियं में भी प्रायः इसी भाव का प्रतिपादन है। प्रस्तुत उद्देशक में ऊर्ध्व मालापहृत एवं तिर्यक् मालापहृत दोनों दोषों के प्रतिसेवन का प्रायश्चित्त बतलाया गया है।
י
आधारचूला के पिण्डेषणा अध्ययन में मृत्तिका आदि से उपलिप्त अशन, पान आदि को लेने का निषेध किया गया है क्योंकि उसमें षड्जीवनिकाय का समारम्भ तथा पश्चात्कर्म- इन दो दोषों की संभावना रहती है वहां क्रमशः पृथिवीकायप्रतिष्ठित, अप्काय- प्रतिष्ठित, अग्निकाय प्रतिष्ठित, बीजन कर दिए जाने वाले अत्युष्ण अशनादि तथा वनस्पतिकाय एवं सकाय पर प्रतिष्ठित अशन, पान आदि को अप्रासुक, अनेषणीय मानते हुए ग्रहण करने का निषेध किया गया है। प्रस्तुत उद्देशक में इन पृथिवीकाय प्रतिष्ठित अशन आदि के ग्रहण का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है।
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प्रस्तुत उद्देशक में ग्यारह प्रकार के पानक का उल्लेख करते हुए बताया गया है कि ये पानक यदि अधुनाघौत हों, अनाम्ल, अव्युत्क्रान्त, अपरिणत, अविध्वस्त हों तो जो भिक्षु उसे ग्रहण करता है अथवा ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है, वह प्रायश्वित्तभाक् होता है आयारचूला में उत्स्वेदिम, संस्वेदिम एवं चावलोदक इन तीन के लिए अधुनाधीत आदि विशेषणों का प्रयोग किया गया है, पर तिलोदक, तुषोदक, जवोदक आदि के लिए अधुनाधीत अथवा चिरधौत जैसा कोई विशेषण नहीं लगाया गया ऐसा क्यों ? दसवे आलिय में भी अधुनाधीत वारघोवण, संस्वेदिम एवं चावलोदक के विवर्जन का निर्देश देते हुए कहा गया कि यदि भिक्षु निःशंकित रूप से इन्हें चिरधौत जाने तो परिणत एवं अचित्त जानकर इनका ग्रहण करे।' प्रश्न होता है कि तिलोदक, तुषोदक आदि को क्या अधिरथीत अवस्था में जबकि उनके वर्ण, गंध आदि परिणत न हुए हों, तब भी उन्हें लिया जा सकता है? ध्यातव्य है आयारचूला की नियुक्ति एवं वृत्ति में तथा निसीहझयणं के भाष्य एवं चूर्णि इस विषय कोई हेतु अथवा चालना - प्रत्यवस्थान उपलब्ध नहीं होता ।
कोई साधर्मिक निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्धी क्रमशः अपने सदृश (साधर्मिक सांभोजिक) निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी के पास आए और उसके उपाश्रय में अवकाश होने पर भी उसे अवकाश न दे, कोई भिक्षु गाए, नाचे, अभिनय करे अथवा अपने आचार्यत्व के लक्षणों का कथन करे इन सब का भी प्रस्तुत उद्देशक में प्रायश्चित्त कथन किया गया है। प्रस्तुत प्रसंग में भाष्य में आचार्य के गुणों, साधर्मिकता के लक्षणों आदि का भी अच्छा रोचक एवं ज्ञानवर्धक विवरण मिलता है।
१. आचू. १/८८
२. दसवे. ५/१/६७-६९
३. आचू. १/९९
४. वही, १/१०१
५. दसवे. ५/१/७५- ७७