Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
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उद्देशक ५ : टिप्पण
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निसीहज्झयणं साथ दूसरों के भी मोह का उद्दीपन होता है। इस प्रकार की प्रवृत्तियों दर्शन, चारित्र और तप की अभिवृद्धि । जो सांभोजिक होता है उत्तर से लोगों में निन्दा, शासन की अप्रभावना, आत्मविराधना तथा गुणों में विषण्ण या शिथिल होने पर उसकी सारणा-वारणा की संयमविराधना आदि अनेक दोष उत्पन्न होते हैं। अतः मुंह, नाक, जाती है। इस प्रकार उत्तरगुणों के संरक्षण से मूलगुण संरक्षित होते होठ, दांत आदि तथा पत्र, पुष्प आदि के द्वारा विकृत शब्दों को है, चारित्र की रक्षा होती है। पैदा करने वाले एवं वाद्य-ध्वनियों को उत्पन्न करने वाले भिक्षु को जिस प्रकार खार, लवण, विष आदि आगन्तुक या अन्य प्रायश्चित्ताह माना गया है।
किन्हीं तदुत्थ दोषों से कुओं का जल अपेय एवं आमयकर हो जाता १२. सूत्र ६१-६३
है, तब जल लाने वाले से पूछा जाता है-पानी कहां से लाए। यदि जो साधुओं के उद्देश्य से बनाई जाए, वह शय्या औद्देशिक दोषयुक्त कुओं से जल लाया गया है तो उसे लाने तथा पीने का शय्या है। जिस मकान, दुकान आदि का नवनिर्माण अथवा पुनर्निर्माण निषेध किया जाता है। उसी प्रकार कुछ व्यक्तियों का श्रामण्य केवल निर्ग्रन्थों अथवा अन्यतीर्थिकों सहित निर्ग्रन्थों के लिए हो, प्रमाद, शैथिल्य, सुविधावाद आदि से दूषित हो तो उनके साथ वह उपाश्रय भी औद्देशिक होता है। जिस उपाश्रय की मरम्मत, संवास, संभोज आदि करने पर शुद्धचारित्री के भी मूलगुणों एवं समीकरण, छादन, लेपन आदि साधु के निमित्त हों, वह सप्राभृतिका उत्तरगुणों के दूषित होने की संभावना रहती है अतः पार्श्वस्थ शय्या है तथा जिस मकान का परिकर्म-पृष्ठवंश, दीवार आदि को अवसन्न, कुशील आदि के साथ संभोज करने से संभोज प्रत्ययिक ठीक करना, उसके द्वार को छोटा, बड़ा करना आदि कार्य मुनि क्रिया (कर्मबन्धन) नहीं होता यह कहना ठीक नहीं।' निमित्त हों, वह सपरिकर्म शय्या है। परिकर्म दो प्रकार का होता संभोज एवं उसके प्रकारों के विस्तार हेतु द्रष्टव्य-समवाओ है-मूलगुण विषयक और उत्तरगुण विषयक। इन सबमें मुनि को १२/२ का टिप्पण, भिक्षु आगम विषयकोष, भाग २, पृ. ६०५निमित्त बनाकर पृथ्वीकाय, अप्काय आदि का आरम्भ-समारम्भ ६१४। होता है। अतः मुनि को उसमें रहने का निषेध किया गया है। १४. सूत्र ६५-६७ आयारचूला में बताया गया है कि जो उपाश्रय एक या अनेक प्रस्तुत प्रकरण में पात्र, कंबल, दंड आदि के लिए चार साधर्मिकों के उद्देश्य से निर्मित, क्रीत आदि हो, वह पुरुषान्तरकृत, विशेषणों का प्रयोग किया गया है। सूत्रकार का आशय है कि जो अपुरुषान्तरकृत, परिभुक्त, अपरिभुक्त सभी अवस्थाओं में धारणीय हो, उसका परिभेदन नहीं करना चाहिए। धारणीयता के अकल्पनीय है। किन्तु मरम्मत अथवा अन्य छोटा-मोटा परिकर्म लिए तीन पद प्रयुक्त हुए हैंसाधु या उसके किसी साधर्मिक के निमित्त हो, वह पुरुषान्तरकृत, १. अलं-जो वस्तु अपना कार्य करने में सक्षम एवं समुचित परिभुक्त या आसेवित होने पर कल्पनीय है। अर्थात् औद्देशिक एवं परिमाण वाली हो। मूलगुणपरिकर्म (पृष्ठवंश, धारणा एवं वेली से सम्बन्धित परिकर्म) २. स्थिर-जो वस्तु मजबूत हो। युक्त शय्या पुरुषान्तरकृत एवं परिभुक्त होने पर भी सदोष एवं ३. ध्रुव-जो वस्तु अप्रातिहारिक हो, त्रुटित व खंडित न वर्जनीय है। जबकि उत्तरगुणपरिकर्म एवं प्राभृतिका (सम्मार्जन, हो। समुचित परिमाण वाले उपयोगी उपकरणों को खण्ड-खण्ड अवलेपन आदि) से युक्त शय्या पुरुषान्तरकृत एवं परिभुक्त होने पर करके परिष्ठापन करने से अजीव का असंयम होता है। स्वयं के कल्पनीय हो जाती है।
अथवा अन्य साधर्मिक के आवश्यकता पड़ने पर अन्य उपकरण की १३. सूत्र ६४
गवेषणा में समय एवं शक्ति का अपव्यय होता है। फलतः सूत्रार्थ संभोज का अर्थ है-समान कल्प वाले साधुओं के साथ की हानि होती है। वस्त्र, पात्र, दंड आदि को टुकड़े-टुकड़े कर शास्त्रविहित विधि-विधान के अनुसार आहार, उपधि आदि उत्तरगुणों । परिष्ठापन करते देखकर लोग उड्डाह करते हैं अतः धारणीय उपकरणों से संबंधित व्यवहार की व्यवस्था। संभोज का प्रयोजन है-ज्ञान, का परिष्ठापन प्रायश्चित्तार्ह प्रवृत्ति है।
१. निभा. गा. २०१३,२०१४ २. वही, भा. २ चू.पृ. ३३१-उद्दिश्य कृता औदेशिका। ३. वही, पृ. ३३३-जम्मि वसहीए ठियाण कम्म-पाहुडं भवति, सा
सपाहुडिया छावण-लेवणादि-करणमित्यर्थः। ४. वही, पृ. ३३६-सह परिकम्मेण सपरिकम्मा, मूलगुणउत्तरपरिकर्म
यस्यास्तीत्यर्थः।
५. आचू. २/३-१३ ६. निभा. गा. २१५६-णाणदंसणचरित्ताण वुड्डिहेउं तु एस संभोओ। ७. वही, गा. २१५०-२१५२,२१५७ ८. वही, गा. २१५९ ९. वही, गा. २१६०-२१६२