Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
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निसीहज्झयणं
संधि (मार्ग का उद्गम) का कथन नहीं करना चाहिए। गृहस्थ आदि मार्ग में षट्काय की विराधना कर सकते हैं, कदाचित् उस मार्ग में उनके समक्ष श्वापद, स्तेन आदि के कारण उपद्रव हो सकते हैं। यदि भिक्षु ने उसे मार्ग बताया है तो वह उपर्युक्त परिस्थितियों में प्रद्विष्ट हो सकता है, प्रत्यनीकता के कारण अन्य कोई अपराध - वध, बंधन आदि कर सकता है। ' शब्द विमर्श
नष्ट - मार्गच्युत । २
मूढ - दिग्भ्रान्त ।'
विपर्यस्त - जिस दिशा अथवा पथ से आए, विपर्यय के कारण उसी में जाने वाले।*
संधि-दो घरों के बीच का अन्तर (बीच की गली) ।'
मार्ग - गाड़ी का रास्ता ( शकट पथ) अथवा सारा ही पथ
मार्ग कहलाता है।
पवेदेति - बताता है, कथन करता है।
८. सूत्र २९,३०
जाएं।"
धातु के तीन प्रकार होते हैं
१. पाषाण धातु - जिसे धमन कर स्वर्ण आदि प्राप्त किए
२. रस धातु - जिस द्रव विशेष को तांबे आदि पर डालकर सोना आदि बनाया जाए।"
३. मृत्तिका धातु - विशिष्ट योगपूर्वक धमन कर जिस मिट्टी से सोना आदि बनाया जाए।"
निधान-भूमि आदि में निक्षिप्त धन खजाने के भी देवता, मनुष्य आदि से परिगृहीत, अपरिगृहीत, जलगत, स्थलगत आदि अनेक भेद होते हैं।"
किसी भिक्षु को धातु और निधान का ज्ञान हो, तब भी वह
१. निभा. गा. ४३१००
२. वही, गा. ४३०६ - णट्ठा पंथफिडिता ।
३. वही मूढा उ दिसाविभागममुणेंता ।
४. वही-तं चिय दिसं पहं वा, वच्चेंति विवज्जियावण्णा ।
२८७
५. दसवे. अ. चू. पू. १०७ - संधी जमलघराण अंतरं ।
६. वही, गा. ४३०७ - मग्गो खलु सगडपहो पंथो व ।
७. निभा भा. ३, चू. पृ. ३८७ - जत्थ पासाणे जुत्तिणा जुत्ते वा धम्ममाने सुवण्णादी पडति सो पासाणधातू ।
८. वही-जेन धातुपानिएण तंगादि आसित्तं सुवण्यादि भवति, सो रसो भण्णति ।
९. वही जा मट्टिया जोगजुत्ता अजुत्ता वा धम्ममाणा सुवण्णादि भवति
सा धातुमट्टिया ।
१०. वही - णिधाणं णिधी, णिहितं स्थापितं द्रविणजातमित्यर्थः । १९. वही, गा. ४३१४
उद्देशक १३ : टिप्पण
गृहस्थ आदि को न बताए क्योंकि इससे अधिकरण, षट्काय की विराधना आदि अनेक दोष संभव हैं।१२
९. सूत्र ३१-३८
चौवन अनाचारों की श्रृंखला में सत्रहवां अनाचार है- देहप्रलोकन । ३ देह प्रलोकन का अर्थ है-दर्पण आदि में शरीर अथवा रूप को देखना । दर्पण के समान पात्र, तलवार, मणि, जल, तेल, मधु, घी, फाणित आदि में भी शरीर को देखा जा सकता है। देहप्रलोकन के अंतर्गत इन सबका अधिग्रहण हो जाता है। अगस्त्यसिंह स्थविर के अनुसार देह - प्रलोकन ब्रह्मचर्य के लिए घातक है । १४ निशीथ भाष्यकार के अनुसार पात्र, दर्पण आदि में रूप देखने से प्रतिगमन ( उन्निष्क्रमण), निदान, बाकुशत्व, गौरव, क्षिप्तचित्तता, लोकापवाद आदि दोष भी संभव है।"
अदाए अद्दाग देशी शब्द है। इसका अर्थ है-दर्पण १५ उड्डपाणे उड्ड देशी शब्द है इसका अर्थ है दीर्घ, बड़ा, कुआं आदि । " भाष्य चूर्णि सहित निशीथसूत्र में इसके स्थान पर 'कुडापाणे' (पाद-टिप्पण में कुंडपाणिए) पाठ रखा गया है।"
निशीथ की हुंडी में इसका अर्थ ठंडो पानी (गहरा जल ) किया गया है । १९
देहति - देह देशी धातु है। इसका अर्थ है - देखना । १०. सूत्र ३९-४१
यमन का अर्थ है- ऊर्ध्वविरेक" हरिभद्रसूरि के अनुसार मदनफल आदि के प्रयोग से उल्टी करना वमन है।२९
विरेचन का अर्थ है - अधोविरेक । २२ जुलाब आदि के द्वारा मल का शोधन विरेचन है। सूयगडो में इनके साथ वस्तिकर्म का भी निषेध किया गया है। " दसवेआलियं में भी इन्हें अनाचार माना गया है । २४ रोग की संभावना से बचने के लिए, रूप, बल आदि बनाए रखने के लिए वमन एवं विरेचन करना अनाचार है ।
१२. वही, गा. ४३१५ सचूर्णि ।
१३. दसवे. अध्य. ३ (आमुख, पृ. ४०)
१४. दसवे अ.चू. पृ. ३३ - संलोयणेण बंभपीडा ।
१५. निभा. गा. ४३२६
१६. दे. श. को. (पृ. ५४)
१७. वही
१८. निभा. भा. ३ चू. पृ. ३८९
१९. नि. हंडी (अप्रकाशित)
२०. निभा. भा. ३, चू. पृ. ३९२ - उड्डविसेसो वमणं । २१. दसवे. हा टी. प. १८-वमनं मदनफलादिना । २२. निभा. भा. ३, चू. पृ. ३९२ - अहो सावणं विरेयो । २३. सूय. १।९।१२
२४. दसवे. ३।९