Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
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निसीहज्झयणं
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उद्देशक १३ : टिप्पण १०. लोभपिण्ड-आसक्तिपूर्वक किसी वस्तु की येन केन प्रस्तुत सन्दर्भ में निशीथभाष्य में ब्रह्मद्वीप के तापस-प्रमुख का प्रकारेण गवेषणा करना अथवा उत्तम भोजन को अतिप्रमाण में ग्रहण उदाहरण दिया गया है। करना लोभपिण्ड है। पिण्डनियुक्ति में इस विषय में केसरियामोदक वेणा नदी के तट पर पांच सौ तापस रहते थे। उन का कुलपति की घटना का संकेत मिलता है।'
पादलेप योग का ज्ञाता था। वह अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्व दिनों ११. विद्यापिण्ड-विद्या का प्रदर्शन कर आहार प्राप्त करना । में पादलेप योग का प्रयोग कर वेणा नदी के जल पर पैरों से चलकर विद्यापिण्ड है। प्रस्तुत संदर्भ में निशीथभाष्यकार ने भिक्षु-उपासक वेणातट नगर पहुंच जाता । लोग इसे तपःप्रभाव मानकर उससे आकृष्ट का दृष्टान्त देते हुए विद्या-पिण्ड के दोषों का निरूपण किया है। हो जाते और वस्त्र, भोजन आदि से उसका सत्कार करते। यह
एक व्यक्ति बौद्ध भिक्षुओं का उपासक था। वह साधुओं को योगपिण्ड है। दान नहीं देता था। एक साधु ने कहा यदि आप विद्यापिण्ड लेना १४. चूर्णपिण्ड-अनेक औषधियों का मिश्रण चूर्ण कहलाता चाहें तो मैं इस व्यक्ति से सब कुछ दिलवा सकता हूं। साधुओं ने है। वशीकरण-चूर्ण आदि के द्वारा वशीकृत कर आहार प्राप्त करना स्वीकार कर लिया। उस साधु ने उस भिक्षु-उपासक को विद्या से चूर्णपिण्ड है। निशीथभाष्यकार के अनुसार वशीकरण आदि चूर्ण से वशीभूत कर लिया। उससे बहुत सी खाद्य वस्तुएं, वस्त्र आदि लेने द्वारा आहार प्राप्त करने पर भी वे ही दोष संभव है जो मंत्र, विद्या के बाद जब विद्या का उपसंहार किया तो भिक्षु-उपासक बोलने आदि के द्वारा आहार प्राप्त करने में आते हैं। लगा–अरे! किसने मुझे से सब कुछ हरण कर लिया। परिजनों ने १५. अन्तर्धानपिण्ड-अंजन-प्रयोग आदि से अदृश्य होकर कहा-तुमने अपने हाथ से साधुओं को दिया है।
आहार प्राप्त करना अन्तर्धानपिण्ड है। प्रस्तुत सन्दर्भ में निशीथ१२. मंत्रपिण्ड-मंत्र के द्वारा चमत्कार दिखाकर आहार प्राप्त भाष्यकार ने चाणक्य एवं दो क्षुल्लकों की घटना का उदाहरण दिया करना मंत्रपिण्ड है । भाष्यकार ने पादलिप्त एवं मुरुण्डराज के कथानक है। से मंत्रपिण्ड को समझाते हुए उसके दोषों का निरूपण किया है।
दुर्भिक्ष का समय था । सुस्थित आचार्य पाटलिपुत्र में विराजमान एक बार राजा मुरुण्ड के सिर में अत्यन्त तीव्र वेदना हुई। थे। उनके पास दो छोटे शिष्य थे। उनको अंजन-योग ज्ञात हो गया। कोई भी वैद्य राजा को स्वस्थ नहीं कर पाया। आचार्य पादलिप्त को। उन्होंने अंजन-योग का प्रयोग कर राजा चन्द्रगुप्त के साथ भोजन बुलाया गया। उन्होंने एकान्त में बैठकर अपने घुटने पर मंत्र प्रयोग करना प्रारम्भ कर दिया। निरन्तर ऊनोदरी के कारण राजा दुर्बल हो करते हुए अपनी प्रदेशिनी अंगुली को घुमाया। जैसे-जैसे अंगुली गया। चाणक्य ने राजा के लिए एक द्वारवाली भोजनभूमि बनवाई घुमाई गई, वैसे-वैसे राजा की पीड़ा शान्त हो गई। इस प्रकार मंत्र- और द्वार पर ईंटों का चूर्ण बिछा दिया। पदचिह्नों से पता चला कि ये प्रयोग से प्रभावित कर किसी से आहार-ग्रहण का प्रयत्न किया जाए अदृश्य होकर खाने वाले व्यक्ति पादचारी एवं अंजनसिद्ध हैं। चाणक्य अथवा आहार-प्राप्ति के लिए मंत्र का प्रयोग किया जाए, वह ने द्वार बन्द कर वहां धूआं कर दिया। अश्रुओं के साथ अंजन निकल मंत्रपिण्ड है।
गया और क्षुल्लक पकड़े गए। इस प्रकार अदृश्य होकर आहार१३. योगपिण्ड-पादलेप आदि योगों के द्वारा पानी पर चलकर ग्रहण करना अन्तर्धानपिण्ड है। अथवा आकाश में गमन कर भिक्षा प्राप्त करना योगपिण्ड है। विस्तार हेतु द्रष्टव्य-निशीथभाष्य, परि. २ कथा सं. ९२
१. पि.नि. २१९/९-संभोइय मोदगे लंभो। २. निभा. गा. ४४५७-४४५९ ३. वही, गा. ४४६०, ४४६१ ४. वही, गा. ४४७०-४४७२
पिं प्र. टी. प. ४०-चूर्णः औषधद्रव्यसंकरक्षोदः।
६. निभा. भा. ३ चू.पृ. ४२३-वसीकरणाइया चुण्णा, तेहिं जो पिडं
उप्पादेति। ७. वही, गा. ४४६२ ८. वही, भा. ३, चू. पृ. ४२३-अप्पाणं अंतरहितं करेंतो जो पिंडं
गेण्हति सो अंतद्धाणपिंडो भण्णति । ९. वही, गा. ४४६४-४४६५