Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
View full book text
________________
३५५
निसीहज्झयणं
उद्दशक १६ : सूत्र ४६-५१ ४६. जे भिक्खू, चित्तमंताए सिलाए। यो भिक्षुः चित्तवत्यां शिलायाम् ४६. जो भिक्षु सचित्त शिला पर उच्चारउच्चार-पासवणं परिद्ववेति, परिहवेंतं उच्चारप्रसवणं परिष्ठापयति, प्रसवण का परिष्ठापन करता है अथवा वा सातिज्जति॥ परिष्ठापयन्तं वा स्वदते।
परिष्ठापन करने वाले का अनुमोदन करता
४७. जे भिक्खू चित्तमंताए लेलूए
उच्चार-पासवणं परिवेति, परिढुवेंतं वा सातिज्जति॥
यो भिक्षुः चित्तवति लेलुए' उच्चारप्रसवणं परिष्ठापयति, परिष्ठापयन्तं वा स्वदते।
४७. जो भिक्षु सचित्त ढेले पर उच्चार-प्रसवण
का परिष्ठापन करता है अथवा परिष्ठापन करने वाले का अनुमोदन करता है।
४८. जे भिक्खू कोलावासंसि वा दारुए यो भिक्षुः 'कोला'वासे वा दारुके ४८. जो भिक्षु घुणयुक्त लकड़ी, जीवप्रतिष्ठित
जीवपइदिए सअंडे सपाणे सबी। जीतप्रतिष्ठित साण्डे सप्राणे सबीजे लकड़ी, अंडे सहित, प्राणसहित, बीजसहरिए सओस्से सउत्तिंग-पणग- सहरिते 'सओस्से' सोत्तिंग-पनक-दक- सहित, हरितसहित, ओस-सहित दग-मट्टिय-मक्क डा-संताणए मृत्तिका-मर्कटक-सन्तानके उच्चार- (उदकसहित) और कीटिकानगर, पनक, उच्चार-पासवणं परिढुवेति, परिढुवेंतं प्रसवणं परिष्ठापयति, परिष्ठापयन्तं वा कीचड़ अथवा मकड़ी के जाले से युक्त वा सातिज्जति॥ स्व दते।
लकड़ी पर उच्चार-प्रसवण का परिष्ठापन करता है अथवा परिष्ठापन करने वाले का अनुमोदन करता है।
४९. जे भिक्खू थूणंसि वा गिहेलुयंसि यो भिक्षुः स्थूणायां वा गृहेलुके वा
वा उसुयालंसि वा कामजलंसि वा 'उसुकाले' वा कामजले वा अन्यतरस्मिन् अण्णयरंसि वा तहप्पगारंसि। वा तथाप्रकारे अन्तरिक्षजाते दुर्बद्ध अंतरिक्खजायंसि दुब्बद्ध दुर्निक्षिप्ते अनिष्कम्पे चलाचले दुण्णिक्खित्ते अणिकंपे चलाचले उच्चारप्रसवणं परिष्ठापयति, उच्चार-पासवणं परिढवेति, परिहवेंतं परिष्ठापयन्तं वा स्वदते । वा सातिज्जति॥
४९. जो भिक्षु खंभे, देहली, ऊखल, स्नानपीठ
अथवा अन्य उसी प्रकार के अन्तरिक्षजात, जो दुर्बद्ध हों, दुनिक्षिप्त हों, अनिष्कम्प हों एवं चलाचल हों, उन पर उच्चार-प्रस्रवण का परिष्ठापन करता है अथवा परिष्ठापन करने वाले का अनुमोदन करता है।
५०. जे भिक्खू कुलियंसि वा भित्तिसि यो भिक्षुः कुड्ये वा भित्तौ वा शिलायां ५०. जो भिक्षु कुड्य, भित्ति, शिला, ढेला
वा सिलसि वा लेलुंसि वा वा 'लेलुंसि' वा अन्यतरस्मिन् वा अथवा अन्य उसी प्रकार के अन्तरिक्षजात, अण्णयरंसि वा तहप्पगारंसि तथाप्रकारे अन्तरिक्षजाते दुर्बद्धे दुर्निक्षिप्ते जो दुर्बद्ध हों, दुर्निक्षिप्त हों, अनिष्कम्प हों अंतरिक्खजायंसि दुब्बद्ध अनिष्कम्पे चलाचले उच्चारप्रसवणं एवं चलाचल हों, उन पर उच्चार-प्रसवण दुण्णिक्खित्ते अणिकंपे चलाचले परिष्ठापयति, परिष्ठापयन्तं वा स्वदते। का परिष्ठापन करता है अथवा परिष्ठापन उच्चार-पासवणं परिढुवेति, परिढुवेंतं
करने वाले का अनुमोदन करता है। वा सातिज्जति॥
५१.जे भिक्खू खंधंसि वा फलिहंसि वा यो भिक्षुः स्कन्धे वा परिघे वा मंचे वा मंचंसि वा मंडवंसि वा मालंसि वा मण्डपे वा 'माले' वा प्रासादे वा हऱ्यातले पासायंसि वा हम्मतलंसि वा वा अन्यतरस्मिन् वा तथाप्रकारे अण्णयरंसि वा तहप्पगारंसि ___अन्तरिक्षजाते दुर्बद्धे दुर्निक्षिप्ते अंतरिक्खजायंसि दुब्बद्ध अनिष्कम्पे चलाचले उच्चारप्रसवणं
५१. जो भिक्षु प्राकार, अर्गला, मचान, मंडप,
माल (मंजिल), प्रासाद, हयंतल अथवा अन्य उसी प्रकार के अन्तरिक्षजात, जो दुर्बद्ध हों, दुनिक्षिप्त हों, अनिष्कम्प हों एवं चलाचल हों, उन पर उच्चार-प्रसवण का