Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
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उद्देशक १६ : टिप्पण
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निसीहज्झयणं ८. दस्य-दांत से काटने वाले।
आदि को भूमि, संस्तारक आदि पर रखना उचित नहीं। ९. अनाय-हिंसा आदि अकरणीय काम करने वाले। १२. सूत्र ३७,३८ १०. सूत्र २८-३३
भिक्षु अपने समान समाचारी वाले साम्भोजिक भिक्षुओं के जिन कुलों में लोग भिक्षु एवं भिक्षुचर्या के विषय में जानते हैं, साथ बैठ कर अथवा उनसे आवेष्टित-परिवेष्टित होकर आहार कर धर्म एवं पात्रदान के प्रति श्रद्धा रखते हैं, उन कुलों में आहार-पानी, सकता है। अन्यतीर्थिक एवं गृहस्थ के साथ आहार करने से यदि वे वस्त्र-पात्र, स्थान आदि ग्रहण करने से एषणा सम्बन्धी दोषों की ____ आहार से पूर्व हाथ-पैर आदि को साफ करें, "भिक्षु हमारे साथ संभावना कम रहती है। नट, चर्मकार, लोहकार, रंगरेज आदि की भोजन करेगा'-ऐसा सोचकर अधिक परिमाण में भोजन बनवाएं तो जीवनचर्या सामान्य शिष्ट कुलों से भिन्न होती है। इनकी बस्तियां । पुरःकर्म, मिश्र आदि दोष लगते हैं। शौचवादी गृहस्थ अथवा प्रायः धार्मिक समाज से बाहर होती हैं। साधु-संतों का सम्पर्क न अन्यतीर्थिक बाद में उस निमित्त से स्नान आदि करें तो पश्चात्कर्म होने के कारण इन्हें धर्म, पात्र-दान आदि का ज्ञान नहीं होता। दोष लगता है। परस्पर एक दूसरे के प्रति जुगुप्सा, रोग-संक्रमण, समाज से बहिर्भूत लोगों के कुलों में आहार, उपधि अथवा वसति अप्रियता आदि दोष भी संभव हैं। ग्रहण करने से लोगों में अपयश होता है, अभोज्य लोगों के घर का गृहस्थ अथवा अन्यतीर्थिक के समक्ष बैठकर मात्रक आदि में आहार लेते देख अन्य व्यक्ति जुगुप्सा एवं विपरिणाम को प्राप्त होते ___साथ-साथ खाने, कांजी आदि से पात्र साफ करने पर उड्डाह आदि हैं, फलतः कोई दीक्षा नहीं लेना चाहता। प्रवचन की हानि होती है। दोष होते हैं। लोग देख रहे हैं इसलिए बहुत जल से पात्र धोने,
अतः मुनि के लिए विधान है कि वह अजुगुप्सित एवं अगर्हित कुलों कुल्ला करने आदि से उत्प्लावना, जीववध आदि दोष संभव हैं।' में ही भिक्षार्थ प्रवेश-निष्क्रमण करे।'
अतः सूत्रकार ने इन दोनों को प्रायश्चित्तार्ह माना है। प्रस्तुत आलापक में जुगुप्सित कुलों में आहार, उपधि एवं १. आवेढिय-आवेष्टित, एक अथवा एकाधिक दिशा में वसति के ग्रहण के समान वहां स्वाध्याय का उद्देश देना, वाचना देना बैठे हों, कुछ लोग बैठे हों अथवा एक पंक्ति में सब तरफ बैठे हों। तथा वाचना ग्रहण करना-इन कार्यों को भी प्रायश्चित्तार्ह माना गया २. परिवेढिय-परिवेष्टित, सब दिशाओं में बैठे हों, दिशाहै। भाष्यकार के अनुसार वहां स्वाध्याय, वाचना से भी आज्ञाभंग, विदिशा में विस्तीर्ण बैठे हों, दो-तीन पंक्तियों में सब तरफ बैठे अनवस्था आदि दोष आते हैं।'
हों। जुगुप्सित कुल के विषय में सविस्तर तुलना हेतु द्रष्टव्य १३. सूत्र ३९ दसवे. ५/१/१७ का टिप्पण।
किसी भी वस्तु का पैर से स्पर्श करना अविनय है। आचार्य११. सूत्र ३४-३६
उपाध्याय संघ में सर्वाधिक सम्मान्य व्यक्ति हैं। गुरु के उपकरणों के अशन, पान आदि को भूमि, संस्तारक आदि पर रखने तथा । हमारे पैरों अथवा पैरों की धूलि लगने पर अविनय एवं उनके प्रति डोरा बांध कर खूटी आदि पर लटकाने से आत्मविराधना एवं __ अबहुमान प्रदर्शित होता है। गुरु की अवमानना से ज्ञान, दर्शन एवं संयमविराधना की संभावना रहती है। भक्तपान को खाने के इच्छुक चारित्र की विराधना होती है क्योंकि हमारे ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र चूहे, बिल्ली आदि प्राणियों की लार उसमें गिर सकती है। सर्प, गुरु के अधीन हैं। दसाओ में भी आचार्य आदि के पैर लगने पर बिना गिलहरी, छिपकली आदि के संसर्ग से वह विषैला हो सकता है। विनय किए चले जाने को आशातना माना गया है। १३ अतः प्रवेश, संस्तारक अथवा अन्य वस्त्र पर आहार रखने से आहार के लेप के निष्क्रमण, विश्रामणा आदि किसी भी प्रवृत्ति में यदि आचार्य, कारण उनमें चींटियां आदि जीव आ सकते हैं। डोरे से खूटी आदि उपाध्याय के शय्यासंस्तारक आदि के पैर का स्पर्श हो जाए, भूल से पर आहार-पानी को लटकाने से पात्र गिरने पर पात्र-विराधना तथा अथवा प्रमादवश पैर लग जाए तो हाथ से स्पर्श कर उसे नमस्कार मिट्टी आदि में मिलने से आहार-विनाश संभव है। अतः अशन करे तथा 'मिच्छामि दुक्कडं' का उच्चारण करते हुए अपनी भूल की १. निभा. भा. ४ चू.पृ. १२४-आरुट्ठा दंतेहिं दसति तेण दसू। ९. वही, गा. ५७७९ २. वही-हिंसादिअकज्जकम्पकारिणो अणारिया।
१०. वही, चू.पृ. १३४-एगदुतिदिसिट्ठितेसु आवेढिउं.....एगपंतीए समंता ३. वही, गा. ५७६२
ठिएसु आवेष्टितः। ४. आचू. १२३
११. वही-सव्वदिसिट्ठितेसु परिवेढिउं.....दिसिविदिसा विच्छिन्नवितेसु ५. निभा. गा. ५७६१
परिवेष्टितः.....दुगातिसु पंतीसु समंता परिट्ठियासु परिवेष्टितः। ६. वही, गा.५७६६
१२. वही, भा. ४ चू.पृ. १३७-पातो सव्वाऽफरिसि त्ति अविणतो। ७. वही, भा. ४ चू.पृ. १३३
१३. दसाओ ३/३ (३१) ८. वही, गा. ५७७७