Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
View full book text
________________
निसीहज्झयणं
३६१
उद्देशक १६ : टिप्पण आलोचना करे यह विधि है। निशीथभाष्य एवं चूर्णि के अनुसार सूत्रार्थ में व्याघात होता है। अतिरिक्त उपधि अनुपयोगी होने से शय्या-संस्तारक के साथ आहार, उपधि एवं गुरु के शरीर का भी अधिकरण की संज्ञा को प्राप्त हो जाती है। भार की अधिकता से ग्रहण हो जाता है। अतः उनका भी पैर से संघट्टा होने पर इसी प्रकार संयमविराधना एवं आत्मविराधना भी संभव है। यदि उपधि हीन क्षमायाचना करनी चाहिए।
प्रमाणवाली हो तो कार्य में बाधा आती है। अतः उचित संख्या में जिस प्रकार इक्षुवन की रक्षा के लिए वन की बाड़ की रक्षा भी प्रमाणोपेत उपधि को संयम-साधना में हितकर माना गया है। आवश्यक है, उसी प्रकार गुरु की उपधि एवं देह का विनय करने १५. सूत्र ४१-५१ वाले को गुरु के शय्या-संस्तारक आदि का भी बहुमान करना प्रस्तुत आलापक में परिष्ठापनिका समिति के अतिक्रमण का चाहिए।
प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। पृथिवीकाय आदि जीव-विराधना वाले स्थानों शब्द विमर्श
पर तथा अन्तरिक्षजात स्थानों पर उच्चार-प्रसवण के परिष्ठापन से हत्थेण अणणुण्णवेत्ता धारयमाणो-हाथ से स्पर्श कर । पृथिवीकायिक आदि जीवों तथा पृथिवी आदि पर स्थित अथवा नमस्कार किए बिना, 'मिच्छामि दुक्कडं' किए बिना।
तनिश्रित अन्य जीवों की विराधना होती है। अन्तरिक्षजात स्थान १४. सूत्र ४०
जो दुर्बद्ध एवं दुर्निक्षिप्त होने से चलाचल होते हैं, निष्कम्प नहीं भिक्षु के दो प्रकार की उपधि होती है-औधिक और औपग्रहिक। होते, उन पर चढ़कर उच्चार-प्रस्रवण का परिष्ठापन करते हुए यदि स्थविरकल्प में साधु की औधिक उपधि के चौदह एवं साध्वियों की भिक्षु गिर जाए तो आत्मविराधना और भाजनविराधना भी संभव
औधिक उपधि के पच्चीस प्रकार होते हैं। इन सब का संख्या तथा है। आयारचूला में भी इनमें से कुछ स्थानों पर परिष्ठापन का निषेध परिमाण की दृष्टि से जितना प्रमाण शास्त्रों में वर्णित है, उससे किया गया है। अधिक संख्या में अथवा अधिक बड़े कल्प (पछेवड़ी), चोलपट्ट ज्ञातव्य है कि कुछ आदर्शों में अणंतरहियाए पुढवीए आदि आदि रखने पर चातुर्मासिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। अतिरिक्त सात सूत्रों में भी जीवपइट्ठिए सअंडे.... आदि पाठ प्रयुक्त है। संख्या अथवा परिमाण में उपधि रखने पर उसकी प्रतिलेखना से शब्दविमर्श हेतु द्रष्टव्य निसीह. १४/२०-३०
१. निभा. भा. ४ चू.पृ. १३७ २. वही, गा. ५७८१ ३. वही, गा. ५७८३ ४. वही, भा. ४ चू.पृ. १३७-हत्थेण अणणुण्णवति-न हस्तेन स्पृष्ट्वा
नमस्कारयति, मिथ्यादुष्कृतं च न भाषते।
५. वही, गा. ५९०१ ६. वही, गा. २१७६-अतिरेग उवधि अधिकरणमेव, सज्झाय-झाण
पलिमंथो। ७. वही, गा. ५९०२ (सचूर्णि) ८. आचू. १०/१४