Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 400
________________ निसीहज्झयणं ३५९ उद्देशक १६ : टिप्पण में निष्कारण गण-संक्रमण करने वाले को पापश्रमण कहा गया आचार, वेश आदि की समानता के कारण शैक्ष भ्रान्त हो सकते हैं। संवास, बारम्बार परिचय से संसर्गज दोष भी पैदा हो सकते हैं। प्रस्तुत सूत्र में द्वितीय भंग से गण-संक्रमण करने वाले के लिए अतः प्रस्तुत आलापक में निह्नवों के साथ व्यवहार सम्बन्धी सीमाओं लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का विधान है। जो निरन्तर संविग्न गण का निरूपण किया गया है। भाष्य एवं चूर्णि में एतद्विषयक अपवादों में रहते हैं, वे आचार्य, उपाध्याय आदि के भय अथवा संकोच से की चर्चा की गई है। अकरणीय दोषों का प्रतिसेवन नहीं करते, आचार्य आदि के वैयावृत्य, ९.सूत्र २६,२७ स्वाध्याय आदि में रत रहते हैं, क्रोध आदि कषायों का निग्रह करते सामान्यतः भिक्षु को उसी मार्ग से तथा उन्हीं क्षेत्रों में विहार हैं। अतः धन्य होते हैं। करना चाहिए, जहां आर्य एवं धार्मिक वृत्ति वाले लोग रहते हों। प्रस्तुत सन्दर्भ में भाष्य एवं चूर्णि में गण-संक्रमण के विविध जहां सुदीर्घ अटवी हो अथवा जहां म्लेच्छ और अनार्य लोग प्रकारों, उपसंपदा के विविध प्रयोजनों तथा विविध प्रकार की रहते हों, वहां जाने से आत्मविराधना एवं संयमविराधना की संभावना उपसंपदाओं, गण-संक्रमण की विधि तथा सूत्रार्थ उपसंपदा, रहती है। उनके खाने और सोने का समय संयमानुकूल नहीं सुखदुःखोपसंपदा, क्षेत्रोपसंपदा तथा मार्गोपसंपदा का ज्ञानवर्धक . होता-अकालभोजी एवं अकालप्रतिबोधि होते हैं। वे धर्म, कर्म के विवरण उपलब्ध होता है। विषय में अज्ञ होते हैं। वे भिक्षु एवं भिक्षुचर्या से अनभिज्ञ होते.हैं। ८. सूत्र १७-२५ अतः भिक्षु को चोर, लुटेरा, गुप्तचर आदि समझ कर उस पर व्युद्ग्रह का अर्थ है-कलह । जो कलह करके गण से अपक्रमण आक्रोश कर सकते हैं, उसे तर्जना, ताड़ना दे सकते हैं, उस पर प्रहार करते हैं, वे व्युद्ग्रह-अपक्रान्त कहलाते हैं। उत्तराध्ययन नियुक्ति कर सकते हैं। अतः आयारचूला में इस प्रकार के स्थानों में विहरण में उल्लिखित सात निह्नवों को निशीथभाष्य में व्युद्ग्रह-अपक्रान्त करने का निषेध किया गया है । १२ प्रस्तुत सूत्रद्वयी में उसी के अतिक्रमण कहा गया है। का प्रायश्चित्त बताया गया है। प्रस्तुत आलापक में निह्नवों के साथ अशन, पान, खाद्य, शब्द विमर्श स्वाद्य, उपधि और वसति के आदान-प्रदान का तथा परस्पर स्वाध्याय १.विह-अटवी३ एवं वसति में अनुप्रवेश का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। इनको आहार, २. अणेगाह-गमणिज्ज-अनेक दिनों से पार करने योग्य ।१४ उपधि आदि प्रदान किए जाएं तो ये गर्व के कारण प्रलाप कर सकते ३. लाढ-निर्दोष आहारादि से संयम यात्रा का निर्वाह करने हैं अन्य व्यक्ति यह सोच सकता है कि 'निश्चित ही ये इनसे श्रेष्ठ वाला भिक्षु।५ हैं, तभी ये श्रमण इन्हें आहार आदि देते हैं।' श्रमण से प्राप्त आहार ४. संथरमाण-जहां आहार, उपधि आदि सुलभ हों। आदि को खाकर यदि ये बीमार हो जाएं तो शंका, कलंक एवं शासन ५. म्लेच्छ-जो अव्यक्त एवं अस्पष्ट भाषा बोलते हैं, वे की अप्रभावना का प्रसंग आ सकता है। यदि इनसे आहार आदि म्लेच्छ कहलाते हैं। ग्रहण किए जाएं तो उद्गम आदि से अशुद्ध भिक्षा का ग्रहण संभव ६. विरूप-आर्यों से भिन्न वेश, भाषा एवं दृष्टि वाले लोग . है। ये अर्हत्-धर्म के प्रत्यनीक होते हैं। अतः शत्रुतावश वशीकरण, जैसे-शक, यवन आदि। विष आदि का प्रयोग भी कर सकते हैं। जिस प्रकार नकली सोने को ७. प्रात्यंतिक मगध आदि साढ़े पच्चीस देशों से बाहर रहने सामान्य व्यक्ति भ्रान्तिवश असली सोना समझ लेता है, उसी प्रकार वाले।९।। १. उत्तर. १७/१७ ११. वही, गा. ५६४३ २. निभा. गा. ५४५४,५४५७ १२. आचू. ३/८,९ ३. वही, गा. ५४५८-५५९३ १३. निभा. ४ चू.पृ. १०५-विहं अद्धाणं । ४. वही, भा. ४ चू.पृ. १०१-वुग्गहो त्ति कलहो ति वा भंडणं ति वा १४. वही-अणेगेहि अहेहिं गमणिज्जं अणेगाहगमणिज्जं। विवादो त्ति वा एगहूँ। १५. वही-लाढे ति साहू, जम्हा उग्गमुप्पादणेसणासुद्धेण आहारोवधिणा ५. वही संजमभारवहणट्ठयाए अप्पणो सरीरगं लाढेतीति लाढो। ६. उनि. १६७ १६. वही-आहारोवहिवसहिमादिएहिं सुलभेहिं जणवए। ७. निभा. गा. ५६२७, ५६२८ १७. वही, पृ. १२४-मिलक्खू जे अव्वत्तं अफुडं भासंति ते मिलक्खू। ८. वही, गा. ५६२९ १८. वही-सग-जवणादि अण्णण्णवेसादिविता विविधरूवा विरूवा। ९. वही, गा. ५६३०-५६३३ सचूर्णि १९. वही-मगहादियाणं अद्धछब्बीसाए आयरियजणवयाणं, तेसिं १०. वही, गा. ५६३७-५६४२ अण्णतरं ठिया जे अणारिया ते पच्चंतिया।

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