Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
View full book text
________________
निसीहज्झयणं
अंबडगलं आम का छोटा, विषम एवं चक्कलिकाकार खंड। अथवा आम्रखंड |
अंबचोयग - आम के केसर - स्नायुभाग ( रुंछा)।' ३. सूत्र १३-६६
प्रस्तुत आगम के तृतीय उद्देशक में निरर्थक पादप्रमार्जन से शीर्षद्वारिका तक समस्त परिकर्म करने का लघुमासिक प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। प्रस्तुत आलापक में गृहस्थ अथवा अन्यतीर्थिक के द्वारा स्वयं के पादप्रमार्जन आदि परिकर्म का प्रायश्चित्त बतलाया गया है। गृहस्थ अथवा अन्यतीर्थिक से शारीरिक परिचर्या करवाने से पश्चात्कर्म, स्वेद, मल आदि के कारण गृहस्थों में अवर्णवाद उत्प्लावना आदि के कारण संपातिम जीवों का वध आदि दोष भी संभव हैं । अतः गृहस्थ अथवा अन्यतीर्थिक से पादप्रमार्जन आदि का लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित आता है। आयारचूला के तेरहवें अध्ययन में भी पादपरिकर्म, कायपरिकर्म आदि क्रियाएं दूसरे से कराने तथा उसका अनुमोदन करने का निषेध प्रज्ञप्त है। वहां 'पर' शब्द से गृहस्थ और अन्यतीर्थिक दोनों का ग्रहण हो जाता है।
विशेष हेतु द्रष्टव्य निसीह. ३/१६-६९ के टिप्पण एवं शब्द विमर्श ।
४. सूत्र ६७-७५
प्रस्तुत आलापक के नौ सूत्रों में यात्रीगृह, आरामगृह आदि ४६ स्थानों का उल्लेख हुआ है। ये ऐसे सार्वजनिक स्थान हैं, जहां लोगों का आवागमन प्रायः चलता रहता है। बहुजन भोग्य स्थानों पर उच्चार-प्रस्रवण का विसर्जन करने पर लोगों में अपयश होता है । श्रमणों के अशुचि- समाचरण से श्रमणधर्म का अवर्णवाद, प्रवचनहानि, जुगुप्सा, अभिनवधर्मा श्रावकों का विपरिणमन आदि अनेक दोष संभव हैं। अतः इन स्थानों पर उच्चार-प्रस्रवण का परिष्ठापन करने का लघुचातुर्मासिक प्रायश्चित बतलाया गया है आयारचूला के दसवें अध्ययन में भी इनमें से कुछ स्थानों पर परिष्ठापन का निषेध किया गया है।"
शब्द विमर्श हेतु द्रष्टव्य - निसीह. ८ / १-९ के टिप्पण । १. निभा. भा. ३ चू. पृ. ४८१-अदीहं विसमं चक्कलियागारेण जं खंडं तं डगलं भण्णति ।
२.
वही, गा. ४६९८ - डगलं तु होइ खंडं ।
३. वही, ४६९९ - चोयं जे जस्स केसरा होंति ।
४. निसीह. ३/१३-६९
५. निभा. गा. ९५०
३४१
६. आचू. १३
७. निभा. गा. ४९५४
८. आचू. १०/२०, २१
५. सूत्र ७६,७७
भिक्षु को तीन करण, तीन योग से सर्व सावद्य योग का त्याग होता है। अन्यतीर्थिक और गृहस्थ को यावज्जीवन के लिए सर्व सावंद्य योग का तीन करण, तीन योग से त्याग नहीं होता। सामायिक एवं पौषध की अवस्था में भी गृहस्थ के द्वारा पूर्व प्रवृत्त व्यापार, कृषि आदि सावद्य योग चलते रहते हैं, उसके साथ उसका अनुमोदन रूप सावद्य योग भी चालू रहता है। अतः श्रमण के लिए गृहस्थ एवं अन्यतीर्थिक को भक्त, पान अथवा वस्त्र आदि देना तथा उनकी शारीरिक शुश्रूषा करना वर्जित है।"
प्रस्तुत सूत्रद्वयी में गृहस्थ एवं अन्यतीर्थिक को अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कंबल एवं पादप्रोञ्छन देने का प्रायश्चित प्रज्ञप्त है।
उद्देशक १५ : टिप्पण
६. सूत्र ७८-९७
जो संयम जीवन को स्वीकार करके भी ज्ञान, दर्शन, चारित्र की आराधना में जागरूक नहीं रहते, आगमोक्त विधि-विधान तथा स्वीकृत मर्यादाओं में अतिचार अथवा अनाचार लगाते हैं, निष्कारण अपवाद का सेवन करते हैं, वे शिथिलाचारी होते हैं। शिथिलाचार के अनेक प्रकार हैं। आगमोक्त विधिनिषेधों एवं प्रायश्चित्त भिन्नता के आधार पर उनकी तीन श्रेणियां हो सकती हैं
१. उत्कृष्ट शिथिलाचारी - जिनकी प्ररूपणा एवं आचार दोनों आगम से विरुद्ध होते हैं। इस श्रेणी में यथाच्छन्द का ग्रहण होता है । इनके साथ वन्दना - व्यवहार, आहार, वस्त्र आदि का आदान-प्रदान वाचना आदि संभोज करने से गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता
२. मध्यम शिथिलाचारी - जो महाव्रत, समिति, गुप्ति आदि मूलगुणों में अतिचार लगाते हैं, उन पार्श्वस्थ अवसन्न, कुशील, नैत्यिक एवं संसक्त इन पांचों का इस श्रेणी में ग्रहण होता है। इनके साथ वन्दना, प्रशंसा करने १२, आहार, वस्त्र आदि का आदान प्रदान १३, वाचना आदि संभोज करने १४ से लघु चातुर्मासिक तथा संघाटक के आदान-प्रदान (साथ में गोचरी जाने-आने) १५ से लघुमासिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है।
९. वही, गा. ४९६१-४९६५
१०. वही, गा. ४९६०
११. (क) निसीह. ११/८३, ८४
(ख) निभा. गा. २०९५, २९००, ४३६६ (सचूर्णि )
१२. निसीह. १३ / ४३-५२
१३. वही, १५/७८-९७
१४. वही, १९/२८-३७
१५. वही, ४/२७-३६