Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
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उद्देशक १५ : टिप्पण
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निसीहज्झयणं ३. जघन्य शिथिलाचारी-जो सामान्य आचार-विचार में है। इस प्रश्न से यह भी ज्ञात हो जाता है कि वस्त्र स्वयं दायक का दोष लगाते हैं, उन काथिक, प्राश्निक, मामाक एवं संप्रसारक को इस है या नहीं? यदि दायक का नहीं है तो जिसका वस्त्र है, उसकी श्रेणी में लिया जा सकता है। इनके साथ वन्दना व्यवहार, आहार, ___ अनुज्ञा है या नहीं? वस्त्र आदि का आदान-प्रदान करने के लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त दूसरी पृच्छा के सामान्यतः चार उत्तर हो सकते हैंप्राप्त होता है। उनके साथ संघाटक, वाचना आदि संभोज करने का १. नित्यनिवसनीय-हमेशा पहनने अथवा ओढ़ने में काम कोई प्रायश्चित्त नहीं बतलाया गया है।
आता है अथवा नित्य पहनने आदि के काम में आने के लिए रखा प्रस्तुत आलापक में पार्श्वस्थ, अवसन्न आदि पांचों के साथ हुआ (नया-अपरिभुक्त) है। आहार तथा उपधि के आदान-प्रदान का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। ये २. मज्जनिक स्नान करके मंदिर में जाने के लिए पहना जाता सुविहित साधुओं के करण-समनोज्ञ (समान संभोज वाले) नहीं है अथवा उस प्रयोजन से क्रीत है। होते । उनको आहार, वस्त्र आदि देने से राग तथा उनसे इन वस्तुओं ३. क्षणोत्सविक-किसी विशेष कार्यक्रम अथवा उत्सव-विशेष को ग्रहण करने पर इनके प्रति प्रीति प्रकट होती है। फलतः संसर्ग में पहना जाता है अथवा उस प्रयोजन से क्रीत है। वृद्धि एवं चारित्र-भेद आदि दोषों की संभावना रहती है, उद्गम ४. राजद्वारिक-राजकुल में प्रवेश के लिए पहना जाता है। आदि दोषों की अनुमोदना होती है अतः इनके साथ आहार एवं इसी पृच्छा में यह भी ज्ञात किया जाता है कि उसके पास उस उपधि का आदान-प्रदान नहीं करना चाहिए।
प्रयोजन के लिए अन्य वस्त्र है या नहीं? भिक्षु के द्वारा ग्रहण पार्श्वस्थ आदि शब्दों के विमर्श हेतु द्रष्टव्य निसीह. ४/ कर लिए जाने पर उसे उस अन्य वस्त्र का उपयोग करने के लिए २०-३६ का टिप्पण।
अन्य कोई सावध क्रियाएं-धोना, धूप देना आदि तो नहीं करनी ७.सूत्र ९८
पड़ेगी?" इस प्रकार दूसरी पृच्छा का प्रयोजन है-पश्चात्कर्म-दोष से वस्त्रोत्पादन के दो प्रकार हैं-१. याचना २. निमंत्रण।
बचाव। १. जब भिक्षु को वस्त्र की अपेक्षा होती है, वह अथवा अन्य निमंत्रणा-वस्त्र ग्रहण करते समय तीसरी पृच्छा-यह किस वस्त्रकल्पिक भिक्षु (जिसे वस्त्र-ग्रहण-विधि का सम्यक् ज्ञान हो) । प्रयोजन से दिया जा रहा है-भी करनी आवश्यक है। यदि यह पूछे गृहस्थ के घर जाकर विधिपूर्वक वस्त्र की याचना कर वस्त्र प्राप्त बिना वस्त्र ग्रहण कर लिया जाए तो मिथ्यात्व, शंका, विराधना करते हैं, वह याचना-वस्त्र होता है।
आदि अनेक दोष संभव हैं। यदि दायक धर्मबुद्धि से वस्त्र देना चाहे २. भिक्षु गोचराग्र अथवा अन्य किसी कार्य हेतु प्रस्थित हो। तो उसे निर्दोष जानकर ग्रहण करना सम्मत है। और गृहस्थ उसे वस्त्र-ग्रहण करने हेतु निवेदन करे, वह निमंत्रणा प्रस्तुत प्रसंग में भाष्य एवं चूर्णि में तत्कालीन परिस्थितियों, वस्त्र होता है।
परम्पराओं, वस्त्र की प्रतिलेखना-विधि, वस्त्र को संयती-प्रायोग्य याचना-वस्त्र को ग्रहण करने से पूर्व प्रथम दो तथा निमंत्रणा बनाने की विधि, वस्त्र की सुलक्षणता-अपलक्षणता आदि अनेक वस्त्र ग्रहण करने से पूर्व तीन पृच्छा करनी चाहिए
विषयों का सविस्तर निरूपण किया गया है। (विस्तार हेतु द्रष्टव्य १. यह वस्त्र किसका है?
निशीथभाष्य गा. ५००१-५०९०) २. यह वस्त्र क्या था? अर्थात् पहले किस काम आ रहा । ८. सूत्र ९९-१५२ था। अथवा किस रूप में उपयोग करने के लिए लाया अथवा बनाया प्रस्तुत आगम के तृतीय उद्देशक में निरर्थक पादपरिकर्म, गया था।
कायपरिकर्म आदि प्रवृत्तियों का लघुमासिक प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है।' ३. यह किस प्रयोजन से दिया जा रहा है।
इस आलापक में विभूषा की प्रतिज्ञा से इन्हीं प्रवृत्तियों को करने का 'यह वस्त्र किसका है'-ऐसा प्रश्न करने पर यह ज्ञात हो जाता लघुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त बतलाया गया है। विभूषा के भावों से है कि यह उद्गम-दोष से दूषित नहीं है तथा किसी दानश्राद्ध गृहस्थ व्यक्ति चिकने कर्मों का अर्जन करता है। फलतः वह घोर एवं दुस्तर ने साधु के प्रयोजन से उसका प्रक्षेप अथवा निक्षेप भी नहीं किया संसार-सागर में निमग्न हो जाता है। भाष्यकार के अनुसार विभूषा १. निसीह. १३/५३-६०
६. वही, भा. ३ चू.पृ. ५६६ २. निभा. गा. ४९७१-४९७६ सचूर्णि।
७. वही, गा. ५०४६ सचूर्णि। ३. वही, गा. ५०२३ सचूर्णि।
८. वही, गा. ५०५२-५०६० सचूर्णि। ४. वही, गा. ५०२५-५०३१ सचूर्णि।
९. निसीह. ३/१६-६९ ५. वही, गा. ५०३९, ५०४०
१०. दसवे. ६/६५