Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
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आमुख
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निसीहज्झयणं
एवं स्वाध्याय के आदान-प्रदान से अनेक दोषों की संभावना रहती है। अतः प्रस्तुत उद्देशक में उसका भी प्रायश्चित्त बताया गया है।
आयारचूला में 'उच्चार-पासवण-सत्तिक्कयं' में परिष्ठापनिका समिति के विषय में अनेक सूत्र उपलब्ध होते हैं, जिनमें उत्सर्गसमिति के सम्बन्ध में अनेक विधि-निषेधों का कथन किया गया है। प्रस्तुत आगम में तीन उद्देशकों में 'उच्चार-प्रस्रवणपद' में उनमें से कुछ के उल्लंघन का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। पूर्ववर्ती उद्देशक में जनभोग्य स्थानों पर परिष्ठापन का चातुर्मासिक प्रायश्चित्त बताया गया है। प्रस्तुत उद्देशक में कुछ ऐसे स्थानों का उल्लेख है, जहां परिष्ठापन करने से संयमविराधना होती है तो कुछ ऐसे अन्तरिक्षजात स्थानों-अधर, अनिष्कम्प, चलाचल स्थानों का उल्लेख है, जहां परिष्ठापन करने से संयमविराधना के साथ-साथ गिरने की संभावना के कारण आत्मविराधना भी संभव है।
वृषिराजिन्-पद' की व्याख्या के अन्तर्गत भाष्यकार ने वसुरात्निक (संविग्न) और अवसुरात्निक की व्याख्या करते हुए वसुरात्निक को अवसुरात्निक और अवसुरात्निक को वसुरात्निक कहने के हेतुओं, दोषों एवं अपवादों की चर्चा के पश्चात् वसुरात्निक गण से अवसुरानिक गण में संक्रमण के विषय में अनेक प्राचीन विधियों की, धार्मिक स्थितियों एवं सामाजिक, राजनैतिक परिस्थितियों की विस्तार से चर्चा की है।