Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
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टिप्पण
१. सूत्र १-४
कोई भिक्षु भदन्त (आचार्य) को आगाढ़ , परुष अथवा आगाढ़-परुष वचन कहता है, किसी प्रकार की आशातना करता है तो उसे गुरुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। यदि वह इस प्रकार का वचन किसी गृहस्थ, अन्यतीर्थिक अथवा अन्य भिक्षु को कहता है अथवा गृहस्थ, अन्यतीर्थिक या अन्य भिक्षु की किसी प्रकार की आशातना करता है तो उसे लघुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। इसलिए भिक्षु को सदैव इष्ट, शिष्ट एवं मधुर भाषा का प्रयोग करना चाहिए तथा मनसा, वाचा, कर्मणा किसी की भी आशातना नहीं करनी चाहिए।
__ आगाद, परुष आदि शब्दों के विमर्श हेतु द्रष्टव्य-निसीह. १०/१-४ का टिप्पण। २. सूत्र ५-१२
प्रस्तुत 'अंब-पदं' नामक आलापक में सचित्त एवं सचित्त प्रतिष्ठित आम तथा आम के विविध खंडों अथवा अवयवों को खाने एवं स्वाद लेकर खाने का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। आयारचूला के सातवें अध्ययन में भी आम एवं उसके विविध प्रकार के खण्डों के ग्रहण के विषय में विधि-निषेध सूचक अनेक सूत्र मिलते हैं।
आयारचूला में कहा गया है कि आम्र अथवा आम्रखंड तिर्यक्छिन्न, व्यवच्छिन्न तथा आगन्तुक अंडे, प्राण, बीज, हरित आदि से रहित हो तो उसे प्रासुक, एषणीय मानता हुआ भिक्षु ग्रहण करे, अन्यथा ग्रहण न करे। इससे यह स्पष्ट नहीं होता कि वह आम आदि स्वयं सचित्त है अथवा अचित्त।
प्रस्तुत आगम के इस आलापक में मुख्य प्रतिपाद्य है-सचित्त अथवा सचित्त-प्रतिष्ठित (प्रलम्ब) फल को खाने अथवा स्वाद लेकर खाने का प्रायश्चित्त। आम अग्र प्रलम्ब है। अतः उसके १. निसीह. १०/१-४ २. वही, १३/१३-१६ तथा १५/१-४ ३. आचू. ७/२६-३१ ४. निभा. गा. ४७०१-४७०५ (सचूर्णि) ५. वही, भा. ३, चू.पृ. ४८० ६. वही, गा. ४६९३ (सचूर्णि) ७. वही, गा. ४६९४ (पूर्वार्द्ध) सचूर्णि। ८. वही, गा. ४६९४ (उत्तरार्द्ध)
प्रतिषेध से सारे सचित्त फलों-मूल प्रलम्ब तथा अग्र प्रलम्ब का प्रतिषेध हो जाता है। मूल और फल-इन दो का ग्रहण करने पर वनस्पति की सारी अवस्थाओं-कंद, मूल, स्कन्ध, त्वचा, शाखा आदि का भी प्रतिषेध हो जाता है-ऐसा भाष्यकार का मत है।' शब्द विमर्श
१.सचित्त-निशीथभाष्यकार और चूर्णिकार के अनुसार जो अभिनवच्छिन्न-पेड़ से तत्काल काटा गया हो, अम्लान हो, वह फल सचित्त होता है। वृक्ष पर स्थित गुट्ठीयुक्त अथवा अपक्व होने से गुढी रहित हो, वह भी सचित्त फल होता है।
२. सचित्त-प्रतिष्ठित-वृक्ष पर स्थित वह फल, जो दुर्वात आदि के कारण स्वयं ही म्लान हो गया हो अथवा बाहर कटाह आदि में पकाने पर भी जिसके अन्दर बीज सचेतन हो, वह फल सचित्त-प्रतिष्ठित कहलाता है।
३. विदशना-छिलका उतार कर गुड़, कपूर, नमक अथवा अन्य इसी प्रकार के पदार्थ से सुस्वादु बनाकर खाना अथवा नाखून से काट-काट कर स्वाद लेकर खाना।
आम-केरी । प्रस्तुत आलापक के प्रथम दो सूत्रों (सू. ५ और ६) में आम शब्द से पक्व एवं सकल आम का ग्रहण किया गया है। आम्रपेशी, आम्रभित्त आदि के साथ गृहीत 'आम' का प्रयोग कच्ची केरी के लिए हुआ है, जिसमें गुदी नहीं होती। अपक्व रस वाली होने के कारण उसे असकल माना गया है। अन्य आचार्य के मत से प्रस्तुत सूत्र में अंब शब्द का अर्थ है-किंचित् न्यून आम।'
अंबपेसी-आम का लम्बा टुकड़ा।"
अंबभित्त-आधा आम ।' अन्य आचार्य के अभिप्राय से भित्त शब्द चौथाई भाग के लिए प्रयुक्त होता है।१२
अंबसालग-आम का छिलका।३ ९. (क) वही, भा. ३, चू.पृ. ४८१-इमं तु पलंबत्तणेण अपज्जतं ।
अबद्धट्ठियं अविपक्वरसत्वादसकलमेवेत्यर्थः । (ख) वही, गा. ४७००-अंबं केणत्ति ऊणं। १०. वही, गा. ४७००-भित्तगं चतुब्भागो। ११. वही, गा. ४६९९-भित्तं तु होइ अद्धं । १२. वही, गा. ४७००-भित्तगं चतुब्भागो। १३. वही, गा. ४६९८-सालं पुण बाहिरा छल्ली।