Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
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आमुख
प्रस्तुत उद्देशक का मुख्य विषय है-परिष्ठापनिका समिति से सम्बन्धित निषिद्ध पदों के आचरण, अन्ययूथिक एवं गृहस्थ के द्वारा स्वयं के शरीर आदि का परिकर्म एवं विभूषा के निमित्त स्वयं के शरीर आदि का परिकर्म, अन्यतीर्थिक, गृहस्थ तथा असंविग्न भिक्षुओं के साथ आहार-पानी तथा उपधि के आदान-प्रदान करने एवं सचित्त आम आदि को खाने का प्रायश्चित्त।
प्रस्तुत आगम में परिष्ठापनिका समिति सम्बन्धी अनेक आलापकों का संग्रहण हुआ है। चौथे उद्देशक में उच्चारप्रस्रवण के परिष्ठापन की विधि, क्षेत्र एवं परित्याग के पश्चात् स्वच्छता आदि के विषय में अनेक निर्देश उपलब्ध होते हैं। शेष उद्देशकों में गृहीत'उच्चारप्रस्रवण-पद' का सम्बन्ध उनके परिष्ठापन क्षेत्र से है। प्रस्तुत उद्देशक में यात्रीगृह, आरामगृह आदि ऐसे छयालीस स्थानों पर उच्चाप्रस्रवण के परिष्ठापन का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है, जहां पर परिष्ठापन करने से साधु-संस्था का अवर्णवाद, प्रवचनहानि, जुगुप्सा, अभिनवधर्मा श्रावकों का विपरिणमन आदि अनेक दोषों की संभावना है। आयारचूला के 'उच्चारपासवण-सत्तिक्कयं' नामक अध्ययन में इनमें से कुछ स्थानों पर उच्चार-प्रस्रवण के विसर्जन का निषेध किया गया है। शेष स्थानों पर विसर्जन का निषेध न करने के पीछे क्या हेतु रहा है? यह अन्वेषण का विषय है।
प्रस्तुत आगम में पादपरिकर्म, कायपरिकर्म, व्रणपरिकर्म, गंडादिपरिकर्म, दीर्घरोम एवं मलनिर्हरण आदि से सम्बद्ध चौवन सूत्रों का अनेकशः कथन हुआ है। प्रस्तुत उद्देशक में इनका दो बार उल्लेख है
१. अन्ययूथिक एवं गृहस्थ के द्वारा साधु का परिकर्म। २. विभूषा की प्रतिज्ञा से साधु द्वारा स्वयं का परिकर्म ।
भिक्षु विभूषा के संकल्प से जिस प्रकार शरीर एवं शरीर के विविध अवयवों का आमार्जन-प्रमार्जन, संबाधन-परिमर्दन, अभ्यंगन-म्रक्षण, उत्क्षालन, प्रधावन आदि कार्य नहीं कर सकता, उसी प्रकार वह वस्त्र, पात्र, कंबल, पादप्रोञ्छन आदि उपकरणों को विभूषा के लिए न धारण कर सकता है और न उनका प्रक्षालन कर सकता।
भिक्षु की विहार चर्या (जीवनशैली) का केन्द्रीय तत्त्व है-अहिंसा एवं संयम । उसे जीवन-पर्यन्त सभी सपाप प्रवृत्तियों का तीन करण एवं तीन योग से प्रत्याख्यान होता है। गार्हस्थ्य में रहते हुए कोई व्यक्ति तीन करण, तीन योग से सभी सावध कार्यों का परित्याग कर दे यह सामान्यतः संभव नहीं। अतः भिक्षु गृहस्थों एवं अन्यतीर्थिकों को अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कम्बल एवं पादप्रोज्छन नहीं दे सकता।
प्रस्तुत उद्देशक में असंविग्न भिक्षुओं-पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील, नैत्यिक एवं संसक्त भिक्षुओं के साथ अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, पात्र, कम्बल और पादप्रोञ्छन के आदान-प्रदान का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है।
आयारचूला के 'ओग्गह-पडिमा' नामक अध्ययन में बताया गया है कि आम्रवन में अवग्रह ग्रहण करे तो जो आम्र या आम्रखण्ड तिर्यक्छिन्न, व्यवच्छिन्न तथा आगन्तुक अण्डे, प्राण, बीज, हरित, ओस, उदक, उत्तिंग, पनक, दकमृत्तिका और मकड़ी के जाले से रहित हो, उसे प्रासुक एषणीय मानता हुआ ग्रहण करे। प्रस्तुत उद्देशक में सचित्त एवं सचित्तप्रतिष्ठित आम्र तथा आम्र के विविध खण्डों को खाने अथवा स्वाद लेकर खाने का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। भाष्यकार ने प्रस्तुत
प्रसंग में विदशना (स्वाद लेकर खाने) के विषय में बताया है कि प्राचीन काल में आम का छिलका उतार कर उसे गुड़, कपूर, १. आचू. ७/२८,३१