Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
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उद्देशक १४ : टिप्पण
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निसीहज्झयणं संबंधी सूत्र नहीं रहे अथवा उन्होंने उनको अपेक्षित नहीं समझा-इसका काष्ठ अथवा अन्य त्रस-स्थावर जीवयुक्त स्थान पर पात्र सुखाने कोई निश्चित आधार उपलब्ध नहीं होता।
पर जीवविराधना होती है। अतः संयमविराधना से बचने हेतु इनका प्रस्तुत आलापक का एक अन्य विमर्शनीय विषय निषेध प्रज्ञप्त है। जो स्तम्भ, देहली, मचान, माल (मंजिल) आदि है-'बहुदेवसिएण' अथवा 'बहुदेसिएण' । आयारचूला में बहुदेसिएण खुले हों, दुर्बद्ध हों, अस्थिर हों, उन पर सूखने के लिए पात्र रखा पाठ उपलब्ध होता है। निशीथसूत्र की अनेक प्रतियों में 'बहुदेवसिएण' जाए तो पात्र गिर सकता है, टूट सकता है, भिक्षु स्वयं भी पात्र पाठ मिलता है। निशीथभाष्य एवं चूर्णि में दोनों पाठों की व्याख्या उतारते अथवा पात्र रखते समय गिर सकता है, चोट लग सकती है। इस प्रकार मिलती है
इस प्रकार पात्रविराधना, आत्मविराधना आदि दोषों की संभावना के १. देसी का अर्थ है-प्रसृति (पूर्ण अंजलि अथवा दो पल कारण स्तम्भ, देहली आदि अंतरिक्षजात स्थानों पर पात्र का आतापनप्रमाण)। एक, दो और तीन प्रसृति को 'देश' कहा जाता है। तीन से प्रतापन करना प्रायश्चित्त योग्य कार्य माना गया है।' अधिक प्रसृति जल आदि का उपयोग करना बहुदेसिक जल आदि शब्द विमर्श हेतु द्रष्टव्य-निसीह. १३/१-११ का टिप्पण। का उपयोग है।
९. सूत्र ३१-३६ २. तत्काल गृहीत अथवा तद्दिवसगृहीत जल आदि तद्देवसिक जिस पात्र में सचित्त पृथ्वीकाय, सचित्त जल, तेजस्काय होते हैं। संवासित-एक अथवा अधिक रात बासी रखे हुए जल अथवा कंद, मूल, पत्र आदि सचित्त वनस्पतिकाय हो अथवा धान्य आदि बहुदेवसिक होते हैं।
बीज हों, उन्हें निकाल कर पात्र लेने से उन-उन स्थावरकायिक जीवों भाष्यकार एवं चूर्णिकार के अनुसार पात्र यदि वशीकरण योग, की विराधना होती है। पात्र लेने के लिए जीवों को एक स्थान से विष अथवा मद्य से भावित हो तो उसे एक या अनेक दिन तक दूसरे स्थान में संक्रान्त करना अहिंसा महाव्रत का अतिचार है। अतः उत्क्षालन, आघर्षण अथवा अभ्यंगन आदि के द्वारा उपयोग के योग्य भिक्षु स्वयं स्थावरकायिक अथवा त्रसकायिक प्राणियों को बनाया जा सकता है।
स्थानान्तरित न करे और न स्थानान्तरित कर दिए जाने वाले पात्र ७. सूत्र १६-१९
को ग्रहण करे । आयारचूला में कहा गया है___ मेरा पात्र दुर्गन्धयुक्त है'-ऐसा सोच कर भिक्षु अथवा भिक्षुणी 'यदि कोई गृहस्थ किसी से कहे-लाओ, हम इस पात्र से तेल, घृत आदि से पात्र का अभ्यंगन अथवा म्रक्षण न करे कल्क, कंद, मूल, पत्र, पुष्प अथवा फल का विशोधन कर यह पात्र श्रमण लोध्र, चूर्ण आदि द्रव्यों से आघर्षण-प्रघर्षण न करे तथा प्रासुक __ को दें। उस पात्र को अप्रासुक अनेषणीय मानता हुआ भिक्षु उसे शीतल अथवा उष्ण जल से उत्क्षालन-प्रधावन न करे। यह सामान्य ग्रहण न करे तथा गृहस्थ से कहे कि इस प्रकार का पात्र लेना हमें विधान है। अपवादपद में अभियोग, विषप्रयोग, मद्य आदि की। नहीं कल्पता। अशुभ गंध का निवारण करने हेतु यतनापूर्वक अभ्यंगन, आघर्षण १०. सूत्र ३७ आदि परिकर्म अनुज्ञात हैं।
प्रस्तुत सूत्र में खुदाई आदि के द्वारा पात्र के मुख को ठीक पूर्व आलापक के समान इस आलापक में भी आयारचूला एवं करने, मुख का अपनयन करने, करवाने तथा अनुमोदन करने का निसीहज्झयणं के पाठ में भेद है।
प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। प्रस्तुत आगम के प्रथम उद्देशक में अन्यतीर्थिक ८. सूत्र २०-३०
अथवा गृहस्थ से पात्र के परिघट्टन, संस्थापन एवं समीकरण करवाने आयारचूला में पात्र-आतापन पद में अव्यवहित पृथ्वी, (जमाने) का गुरुमासिक तथा द्वितीय उद्देशक में परिघट्टन आदि सस्निग्ध पृथ्वी आदि स्थानों पर पात्र को एक बार अथवा बार-बार क्रियाओं को स्वयं करने का लघुमासिक प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है।११ आतापन करने का निषेध किया गया है। निसीहज्झयणं के प्रस्तुत उपर्युक्त तीनों सूत्रों के भाष्य पर विमर्श करने पर यह स्पष्ट है आलापक में उसी निषेध के अतिक्रमण का प्रायश्चित्त बतलाया गया कि भिक्षु को यथासंभव यथाकृत पात्र ग्रहण करना चाहिए ताकि है। अव्यवहित, सस्निग्ध और सरजस्क भूमि, शिला, ढेला, घुणयुक्त परिकर्म की क्रिया से उसके स्वाध्याय तथा अन्य आवश्यक योगों १. निभा. गा. ४६४३-देसी नाम पसती, तिप्पतिपरेण वा वि बहुदेसो। ७. निसीह. १४/२०-३० २. वही, कक्कादि अणाहारेण वा वि बहुदिवसवुत्थेणं।
८. निभा. गा. ४६४८,४६४९ ३. वही, गा. ४६४६
९. आचू. ६/२५ ४. आचू. ६/३५-३६
१०. निसीह. १/१९ ५. निभा. गा. ४६४६ सचूर्णि।
११. वही, २/२४ ६. आचू. ६/३८-८१